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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार ]
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स्वरुप में अचल होकर, समस्त इच्छा रहित होकर, मोहरूप विष के वृक्ष को उखाडूंगा। अब मुझे अपना स्वरुप ही निश्चय करना है जिससे अनादि से मुझमें फंसी हुई जो मोह की पाशी ( बंधन ) है उसे तोड़ने का उपाय करता हूँ ।
जो अपने स्वरुप को ही नहीं जानता है, वह परमात्मा के स्वरुप को कैसे जानेगा ? इसलिये ज्ञानियों को प्रथम अपने स्वरुप का ही निश्चय (ज्ञान) करना योग्य है। जो अपने स्वरुप को ही नहीं जानेगा उसकी अपने स्वरुप में स्थिति कैसे होगी ? अनादि से पुद्गल से मिलकर एक हो रहे आत्मा को भिन्न कैसे करूँगा ? देह से आत्मा का भेदविज्ञान हुये बिना आत्मा की प्राप्ति कैसे होगी ? आत्मा की प्राप्ति हुए बिना अनन्त ज्ञानादि आत्मगुणों का ज्ञान न हुआ है, न होता है, तब आत्म कल्याण की क्या कथन कहना ? इसलिये मोक्ष के अभिलाषियों को समस्त पुद्गल की पर्यायों (शरीर ) से भिन्न एक आत्म स्वरुप का ही निश्चय करना श्रेष्ठ है ।
आत्मा तीन प्रकार का होता है - बहिरात्मा, अन्तरात्मा, परमात्मा।
बहिरात्मा का स्वरुप : जिसकी बाह्य शरीरादि पुद्गल की पर्यायों में आत्मबुद्धि है वह बहिरात्मा है । जिसकी चेतना मोहनिद्रा से अस्त हो गई है, पर्याय ही को अपना स्वरुप जानता है,निरन्तर इन्द्रियों द्वारा ही प्रवर्तन करता है, अपने स्वरुप की सच्ची पहिचान जिसे नहीं है, देह को ही आत्मा मानता है, देव पर्याय में अपने लिये देव, नारक पर्याय में अपने लिये नारकी, तिर्यंच पर्याय में अपने लिये तिर्यंच, मनुष्य पर्याय में अपने लिये मनुष्य जानकर पर्याय के व्यवहार में तन्मय हो रहा है ।
पर्याय तो कर्मकृत पुद्गलमय प्रत्यक्ष ज्ञानरुप आत्मा से भिन्न ही दिखाई देती है, तो भी कर्मजनित पर्याय में अपनत्व मानकर पर्याय में तन्मय हो रहा है। मैं गोरा हूँ, मैं सांवला हूँ ,मैं अन्य वर्ण हूँ, मैं राजा हूँ, मैं रंक हूँ, मैं स्वामी हूँ, मै सेवक हूँ, मै बलवान हूँ, मै निर्बल हूँ, मैं ब्राह्मण हूँ, मै क्षत्रिय हूँ, मै वैश्य हूँ, मै शूद्र हूँ, मैं हिंसक हूँ, मैं रक्षक हूँ, मैं धनाढ्य हूँ, मैं दातार हूँ, मैं त्यागी हूँ, मैं गृहस्थ हूँ, मैं मुनि हूँ, मैं तपस्वी हूँ, मैं दीन हूँ, मैं अनाथ
हूँ, मै समर्थ हूँ, मै असमर्थ हूँ, मैं कर्ता हूँ, मैं अकर्ता हूँ, मैं रुपवान हूँ, मै कुरुप हूँ, मै पण्डित हूँ, मै मूर्ख हूँ, मैं स्त्री हूँ, मै पुरुष हूँ, मै नपुंसक हूँ इत्यादि कर्म के उदयजनित पर पुद्गलों की विनाशीक पर्यायों में जिसकी आत्मबुद्धि होती है, वह बहिरात्मा मिथ्यादृष्टि है।
जो यह शरीर में आत्मबुद्धि है वह यही पर शरीर के जो स्त्री, पुत्र, मित्र, शत्रु इत्यादि संबंधी हैं उनमें रागद्वेष मोह क्लेशादि उत्पन्न कराकर, आर्त - रौद्र परिणामों से मरण कराकर, संसार में अनन्तकाल तक जन्म-मरण कराती है। पुद्गल की पर्याय में जो आत्मबुद्धि है वह पुद्गलमय जड़रूप एकेन्द्रियों में अनन्तकाल तक भ्रमण कराती है। इसलिये अब बहिरात्मबुद्धि को छोड़कर अन्तरात्मा का अवलंबन लेकर परमात्मपना पाने का यत्न करना चाहिये।
अन्तरात्मा का स्वरुप : इस जगत में जो-जो रुप देखने में आते हैं वे सभी अपने आत्मा के स्वभाव से भिन्न है, पर द्रव्य हैं, जड़ हैं, अचेतन हैं। मैं ज्ञान स्वरुप हूँ, इन्द्रियों के द्वारा जानने
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