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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ३५८] [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार नहीं रहता उसकी सेवा-कृषि-वाणिज्य आदि ही बिगड़ जायगी, तब धर्मध्यान आसन की दृढ़ता के बिना कैसे बनेगा? तीन प्रकार के उत्तम संहनन के धारकों से ही ध्यान में दृढ़ता होती है। जिनका वज्रमय संहनन है, महान बल-पराक्रम के धारक हैं, देव-मनुष्यों के घोर उपद्रव से-उपसर्ग से चलायमान नहीं होते हैं, जिनका आसन तथा मन दृढ़ होता है वे तो जैसा भी स्थान व बैठने का आसन हो उस पर से ही ध्यान कर लेते हैं। जो हीन संहनन के धारक हैं, उनको तो स्थान की शुद्धता व आसन की शुद्धता अवश्य देखकर धर्म ध्यान में प्रवर्तन करना श्रेष्ठ है। जिनका चित्त संसार-शरीर-भोगों से विरक्त हो गया हो, चित्त में विक्षिप्तता नहीं हो, संशय रहित आत्मज्ञानी अध्यात्म रस में भीगे निश्चल हों उनको स्थान का व आसन का भी नियम नहीं है। जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र सहित हैं, जितेन्द्रिय हैं, वे अनेक अवस्थाओं से ध्यान की सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं। धर्मध्यानी इस प्रकार का चिन्तवन करता है - अहो! बड़ा अनर्थ है जो मैं अनन्तगुणों का धारक होकर के भी संसाररुप वन में अनादिकाल के कर्मरुपी बैरी से पूर्णरुप से ठगा गया हूँ। अहो! मैंने अज्ञान भाव से कर्म के उदय से हुए राग-द्वेष-मोह को 3 अपना स्वरुप जानकर घोर दुःखरुप संसार में परिभ्रमण किया है। अब मेरा किसी कर्म के उपशम से, परम उपकारी जिनेन्द्र के परमागम के उपदेश की प्राप्ति होने से रागरुप ज्वर नष्ट हो गया है, तथा मोह निद्रा के दूर होने से स्वभाव और प्रभाव का ज्ञान प्राप्त हुआ है। अब इसकाल में शुद्ध ध्यानरुप तलवार से कर्मों का नाश कर लूँ तो स्वाधीनता को प्राप्त करके फिर कभी दुःखों का पात्र नहीं होऊँगा। यदि मैं अज्ञानरुप अन्धकार को आत्मज्ञानरुप सूर्य के प्रकाश के द्वारा अब भी दूर नहीं करुगा तो अन्य किस पर्याय में दूर करूँगा ? समस्त जगत को देखने का एक अद्वितीय नेत्र मेरा आत्मा है। उसे अभी अविद्यारुप पिशाच से प्रेरित विषय-कषाय ढांके हुए हैं । ये इन्द्रिय विषय और कषाय मुझे-अहित के ज्ञान से रहित किये हुए हैं। मैं इन ठगों के वशीभूत होकर अपना हित-अहित भूल गया हूँ । अहो! ये प्राप्त होते समय तो रमणीक लगते हैं, किन्तु अंत में नीरस लगते हैं- ऐसे पाँचों इन्द्रियों के विषयों से परम ज्योति स्वरुप जगत में महान परमात्म स्वरुप अपना आत्मा ही ठगाया गया है। मैं और परमात्मा दोनों ही ज्ञान रुप नेत्रवाले हैं। परमात्म स्वरुप की प्राप्ति के लिये मैं अपने स्वरुप को जानने की इच्छा करता हूँ। परमात्मा के तो आत्म गुण प्रकट हैं, किन्तु मेरे गुण कर्मों से ढक रहे हैं। मुझमें और परमात्मा में गुणों की अपेक्षा कोई भेद नहीं है, शक्ति-व्यक्ति का ही भेद है। ये कर्मजनित दुःख हैं वे जब तक मैं ज्ञान समुद्र में डुबा नहीं हूँ तभी तक मुझे दुःखी करेंगे। ___नारक, तिर्यंच, मनुष्य, देव की कर्म के उदयजनित पर्याय, मेरा स्वरुप नहीं है। मैं सिद्ध समान, निर्विकार, स्वाधीन, सुखस्वरुप हूँ; मैं अनन्तज्ञान , अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य, अनन्तसुख स्वरुप हूँ; क्या अब मोहरुप विष के वृक्ष को नहीं उखाडूं ? अब मैं अपनी सामर्थ्य को जानकर, अपने Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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