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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
पत्थर
अपने गृह में स्वर्ण का, चाँदी का, कांसे का, पीतल का, लोहे का, ताम्बे का, का, लकड़ी का, चीनी का, काँच का मिट्टी का, कागज का, कपड़े का, जो भी परिग्रह बढ़े, कोई दे जाये, किसी का रह जाये, धन से खरीद कर आ जाये उस परिग्रह को देखकर हर्ष का बढ़ाना, आनंद मानना, परिग्रह बढ़ने से अपने से अपने को ऊँचा मानना वह समस्त परिग्रहानन्द रौद्रध्यान है।
ऐसा भी चिन्तवन करता है - किसी की जमीन - जगह मुझे मिल जाये, इसकी जीविका मेरे पास आ जाये, तथा अमुक के आगे ( भविष्य में ) कोई कार्य करने लायक नहीं है यदि
वह मर जाये तो उसकी जीविका में संपदा में मेरा अधिकार हो जाये। इसके बालक पुत्र, असमर्थ स्त्रियों का तिरस्कार करके ( दूर हटाकर ) मैं अकेला निष्कंटक संपदा भोगूँ ऐसी अभिलाषा करना परिग्रहानन्द है । पर की राज्य, संपदा, धन जमीन, जगह, आजीविका, सुन्दर स्त्री, आभरण, हाथी, घोड़े आदि जबरदस्ती छीन लेने की बुद्धि का, शरीर का, सहायकों का, कपटरुप झूठा उपाय, पुरुषार्थ इत्यादि बल पाने का अपने को बड़ा आनन्द मानना वह समस्त परिग्रहानन्द रौद्रध्यान है। ।।४।
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यह रौद्रध्यान अनेकबार नरक प्राप्त करानेवाला; अनन्तबार तिर्यचों के घोर दुःखों का, अनेक भवों में कुमानुष, घोर दारिद्र, घोर रोगों को उत्पन्न करानेवाला जानकर इसका दूर से ही त्याग करो। यह रौद्रध्यान कृष्ण लेश्या के बल सहित है, पंचम गुणस्थान तक होता है, परन्तु सम्यग्दृष्टि–अव्रती गृहस्थ के तथा व्रतधारी - श्रावक के नरकादि का कारण रौद्रध्यान नहीं होता है।
किसी काल में ऐसा होता है कि अपने पुत्र पुत्री का विवाह करने में, अपने रहने के लिये मकान बनवाने में, न्यायमार्ग से जीविका में लाभ होने के कार्यों के चिन्वतन में भी हिंसा होती है। इनको पाप का कारण खोटा कार्य जानकर आत्मनिंदा भी करता है, तो भी अपने आरंभ के कार्यों में कुछ हर्ष होता ही है । अपना न्यायमार्ग से प्रामाणिक परिग्रह प्राप्त होने पर हर्ष होता ही है। अपने धन को चोर आदि नहीं हरण कर सकें इसलिये अपनी संपदा की रक्षा के लिये झूठकपट करते हुये भी अन्य जीवों के प्राण, धन आदि हरण करने की प्रवृत्ति नहीं करता है । अपनी रक्षा के लिये कपट की आड़ी ढाल करता है, किन्तु अन्य के घात के लिये कपट - झूठ की ढाल-तलवार नहीं करता है । इसलिये श्रावक को जो नरक आदि कुगति का कारण है ऐसा रौद्रध्यान का भाव नहीं होता है।
रौद्रध्यानी के ये बाह्य लक्षण है स्वभाव से ही क्रूरता, पर को कठोर दण्ड देना, निर्दयीपना, अति कपटीपना, सभी के दोष ग्रहण करना इत्यादि भाव होते है। बाह्य में नेत्र लाल करना, भृकुटी चढ़ा लेना, भयानक आकृति, वचन में दुष्टता, इत्यादि बाह्य चिह्न हैं । क्षयोपशम भाव हैं, अंतर्मुहूर्त काल है बाद में अन्य - अन्य हो जाते है । ४ ।
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इस तरह से चार प्रकार का आर्तध्यान तथा चार प्रकार का रौद्रध्यान का त्याग करने पर धर्मध्यान होता है, इन्हें त्यागे बिना धर्मध्यान की वासना अनादि से नहीं हुई। अतः धर्म के इच्छुक को दोनों दुर्ध्यान का स्वरुप समझकर अपने आत्मा में ऐसे आर्तध्यान - रौद्रध्यान के भाव कभी नहीं होने देना चाहिये ।
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