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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार] लूँ कैसे छीन लूँ ? मेरे ऐसा पुण्य का उदय कब आयेगा जब किसी का गिरा, पड़ा, भूला हुआ धन हमारे हाथ लग जायेगा ? अन्य कोई चुराकर मुझे सौंप जाये, चोर का माल हमारे पास अल्प मल्य में आ जाये तथा बहत मल्य के रत्नस्वर्ण आदि मुझे कोई भूलकर-चूककर थोड़े दामों में बेच जाये तो बहुत लाभ हो जाये। यह सब चौर्यानन्द है। कोई अज्ञानी या बालक मुझे बहुत मूल्य की वस्तु थोड़े मूल्य में दे जाय, ऐसा चिन्तवन करना चौर्यानन्द है। ये रक्षक मर जायें, धन का मालिक-धनी मर जाय तो धन हमारे पास ही रह जाय ऐसा चिन्तवन करना चौर्यानन्द है। किसी बलवान की, सेना की मदद लेकर व बहुत प्रकार से उपाय करके यहाँ जो बहुत समय का एकत्र किया हुआ धन रखा है वह ग्रहण कर लूँ; किसी छल से, वचन कला से, पुरुषार्थ से प्राणों की बाजी लगाकर या इन्हे मारकर इनके धन को ग्रहण कर लँ, तभी मेरा परुषार्थ सफल है. इत्यादि सब चौर्यानन्द रौद्रध्यान हैं जो नरकगति के कारण हैं।। परिग्रहानन्द रौद्रध्यान (४) : अब चौथे परिग्रहानन्द रौद्रध्यान का स्वरुप कहते हैं। बहुत परिग्रह बढ़ाने के लिये, बहुत आंरभ करने के लिये चिन्तवन करना वह परिग्रहानन्द रौद्रध्यान है। जो विषयों में राग तथा अभिमान के वश हुआ है वह विचारता है- ऐसा महल-मकान हमारे रहने का बन जाय, कोई हमारा भाग्य फल जाय तो अनेक चित्रशालायें, सोने के खंभे, सोने की सांकलों से झूलनेवाले झूले , अनेक ऋतुओं के कई महल, कोट, कंगूरे, गढ़, तोप, बड़े दरवाजे ऐसे सुन्दर बनवाऊँ कि मेरे आंगन की विभूति देखकर लोगों को आश्चर्य उत्पन्न हो। अनेक बाग लगवाऊँ , बागों में अनेक महल, जल के यन्त्र, फुहारे, चादर, नदियों के धौरा, कुण्ड, बावड़ी, कूप, द्रह, अनेक जल क्रीड़ा के स्थान, कामक्रीड़ा के, भोजन करने के, नाटकगृहों के स्थान बन जायें तब मुझे मनवांछित सफलता हो। अनेक ऋतुओं के फल-फूल हमारे सामने रखे जायें तथा मेरे महल-मकान में स्वर्णमय , रुपमय, वस्त्रमय ऐसी सामग्री जो दूसरे लोगों के यहाँ नहीं हो वह प्राप्त हो तो मैं धन्य हो जाऊँ , वह परिग्रहानन्द है। मेरे शरीर का अद्भूत रुप देखने को हजारों स्त्री-पुरुष बहुत अधिक अभिलाषा करें; ऐसी चाह है कि नख से लेकर शिख तक हीरों के आभरणों के जोड़े हों; पन्ना के माणिक के इन्द्रनील मणि के मोतियों के बहुमूल्य आभरण हों; इस संपदा की बढ़ानेवाले बहुत कोमल बहुमूल्य वस्त्र हों; अनेक प्रकार के स्वर्णमय, रत्नमय, चांदीमय उपकरण हों; कोमल सुकमार अंगोंवाली, अपने लावण्य से देवांगनाओं को जीतनेवाली, शीलवती, प्रिय, हित, वचन सहित प्रेम की भरी स्त्रियाँ साथ में हों; आज्ञाकारी, शूरवीर, धैर्यवान, विद्यवान, विनयवान, यशस्वी पुत्र हों; अपने मन के अनुसार इच्छित कार्य के करनेवाले महाचतुरतायुक्त प्रवीण स्वामीभक्त सेवक हों; सभी लोंगों से अधिक ऐश्वर्य परिवार विभूति होने का चिन्तवन करके आनन्द मानना तथा जैसे- जैसे अपनी धन-संपदा बढ़ती जाय उसका आनन्द मानना वह परिग्रहानन्द है। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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