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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
३५४]
इस प्रकार विकल्प करता है - क्या करूँ, मेरी शक्ति नहीं, कोई ताकतवर मेरी मदद करनेवाला नहीं है, वह भाग्यशाली दिन कब आयेगा जब मैं अपने पुराने शत्रुओं का अनेक कष्ट देकर मारूँगा? यदि मुझमें यहाँ सामर्थ्य नहीं होगी तो परलोक में मारूँगा, इस प्रकार दूसरों का निरन्तर उपकार ही चाहता है। पर के विध्न आ जाय, हानि-वियोग-अपमान हो जाय तब बहुत हर्ष मानता-वह समस्त हिंसानंद रौद्रध्यान है। इस प्रकार के अनेक हिंसा के विकल्प करना वह हिंसानंद है।
हिंसानन्द के ये बाह्य चिह्न हैं - हिंसा के उपकरण, तलवार, छुरी, कटारी, इत्यादि शस्त्र ग्रहण करना, शस्त्रों से मारने के, विदारने के दाव-घात चिन्तवन करना ; मारने की कला में निपुणता रखना, हिंसक जीवों को पालना; हिंसक चीता, कुत्ता, शिकरा (बाज) इत्यादि जीवों को निकट रखना-ये सब हिंसानन्द के बाह्य चिह्न हैं।१।
मृषानन्द रौद्रध्यान (२) : मृषानन्द रौद्रध्यान के दूसरे भेद का स्वरुप ऐसा जानना। जिनका मन असत्य की कल्पना करने में निपुण है वे ऐसा विचार करते है, ऐसा कोई जाल खड़ा करूँ जिससे लोगों को वश में कर के धन ग्रहण करूँ, ऐसी रसायन विद्या का लोभ दिखाऊँ, मन्त्र का, व्यन्तरों का, इन्द्रजाल की विद्या का ऐसा चमत्कार दिखाऊँ, जिससे ये लोग हमारे आधीन हो जायें, मेरी वचन कला भी तभी सफल है जब ये स्वयं को भूलकर मेरे अधीन हो जायें।
पापी परलोक के भयरहित होकर, अपने पण्डितपने के बल से कल्पित शास्त्र बनाकर जगत को विपरीत धर्म बतलाना; हिंसादि आरंभ में यज्ञादि से धर्म बतलाना, देवताओं को बकरा, भैंसा आदि जीव मारकर चढ़ाने से वांछित कार्य की सिद्धि होती है, बैरियों का विध्वंस होता है, राज्य आदि की लक्ष्मी दृढ़ होती है इत्यादि खोटे वचन शास्त्र में लिख देना; परिग्रही-आरंभी को पाप में प्रवर्तन कराना; देवताओं को प्रसन्न करनेवालों को मोक्षमार्गी बतलाना, इत्यादि बहुत खोटे धर्म शास्त्र बनाना, राग बढ़ानेवाली, काम को पुष्ट करनेवाली राजकथा, भोजन कथा, स्त्रीकथा कहने सुनने में आनन्द मानना; पर के झूठेसाँचे दोष कहने में, अपनी बड़ाई करने में आनन्द मानना, वह मृषानन्द है।
असत्य के बल से झूठों को सच्चे दिखलाना, सच्चों को झूठे दिखलाना, दोषयुक्त को निर्दोष कहना, निर्दोष को दोष रहित कहना, तथा ऐसा विचारकर कि ये लोग तो मूर्ख हैं, ज्ञान विचार रहित हैं, इन्हें अपने वचनों की प्रवीणता से अनर्थ कार्यों में प्रवर्तन कराकर भ्रष्ट करके उनकी धन-संपदा छीन लूँगा, इसमें कोई शक नहीं है इत्यादि अनेक असत्य संकल्पविकल्प करते रहना वह नरकगति का कारण मृषानन्द नाम का दूसरा रौद्रध्यान है।।
चौर्यानन्द रौद्रध्यान (३) : अब तीसरे चौर्यानन्द नाम का रौद्रध्यान का स्वरुप ऐसा जानना-चोरी के उपदेश में होशियारी दिखाना, चोरी करने की कला में निपुणपना वह चौर्यानन्द है। दूसरे का धन हरने के लिये रात्रि-दिन चिन्तवन करना, चोरी करके धन लाने में बड़ा हर्ष मानना चौर्यानन्द है। अन्य कोई ने चोरी से धन उपार्जन किया हो उसे देखकर ऐसा विचार करना कि- देखो, इसको कितना धन हाथ लग गया है, मुझे दूसरे का धन कैसे हाथ आवे, कौन उपाय करूँ, किसकी मदद
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