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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
३४८]
संसार में अज्ञानभाव से स्त्री, पुत्रादि को इष्ट मानते हो, तो संसार में अनंत जीवों से अनेक नाते रिश्ते हुये हैं। इतनी माताओं का दूध पिया है कि यदि प्रत्येक की एक-एक बूंद इकट्ठी करें तो अनन्त समुद्र भर जायें। इतने शरीर धारण करके छोड़े है कि यदि एक शरीर का एक रोम इकट्ठा करें तो सुमेरु समान अनन्त ढेर इकट्ठे हो जायें। इतने कुटुम्ब के लोग तेरे लिये रोये हैं व कुटुम्बियों के लिये तू रोया है कि यदि उन अश्रुपातों को एक जगह इकट्ठा करें तो अनन्त समुद्र भर जायेंगे।
सत्यार्थ विचार करो - कौन-कौन से इष्ट के वियोग को गिनोगे ? अनेक इष्ट ग्रहण करके छोड़े हैं। जो इष्ट अभी विद्यमान है उनको छोड़ने का भी अवसर सामने जरुर आयेगा। अवसर का कोई ठिकाना (निश्चत स्थान व समय) नहीं है कि मृत्यु किस स्थान पर किस समय पर आ जायेगी ? मृत्यु को प्राप्त हुए बिना कोई नहीं रहता हैं। सभी इष्ट सामग्री जो आपको दिखाई देती है, जिसमें तुम राग करते हो उसके वियोग होने का समय अचानक आया ही समझो। जिनमें ममता करके फंस रहे हो, जिनके लिये पाँचों प्रकार का पाप करते हो, वे भी अवश्य बिछुड़ेंगे समस्त सामग्री के वियोग के दिन कोई कुछ भी करने में समर्थ नहीं होता है। अतः तिर्यंचगति का कारण इष्ट वियोग में क्लेश नहीं करो।
- ऐसी भावना करो - यह जो शरीर है, वह जल के बुलबुले के समान है, क्षणभर में नष्ट हो जाता है। यह लक्ष्मी. इन्द्रजाल की रचना के समान है, देखते-देखते ही बिला जाती है। ये स्त्री-पुत्र-कुटुम्ब आदि हैं, वे प्रचण्ड पवन के वेग से प्रेरित समुद्र की लहरों के समान चलायमान हैं। विषयों का सुख संध्याकाल के बादलों की लालिमा के समान विनाशीक है। अतः इनके वियोग में शोक करना व्यर्थ है। जिसने शरीर धारण किया है उसे दुःख और मरण तो अवश्य प्राप्त होगा ही। अतः दुख का तथा मरण का भय छोड़कर ऐसे उपाय का विचार करो जिससे शरीर के धारण करने का ही अभाव हो जाय।
हे आत्मन् ! जो कर्म किसी देव, दानव, मंत्र, तंत्र, यंत्र, औषधि आदि के द्वारा नही रोका जा सकता है, उसके कारण अपने इष्ट का मरण होने पर शोक से दुर्ध्यान करना, पागल के समान आचरण करने जैसा है। क्या शोक करने से, रुदन-विलाप करने से कोई दया करके मृतक को जीवित कर देगा ? शोक करने से कुछ भी सिद्धि नहीं है; धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष सब नष्ट हो जायेगा।
जो भी उत्पन्न हुआ है वह मरने के लिये ही उत्पन्न हुआ है। ज्यों-ज्यों समय व्यतीत होता जाता है त्यों-त्यों मरण का दिन नजदीक आता जाता है। जैसे वृक्ष में फल, फूल, पत्ते उत्पन्न होते हैं, वे सभी टूटकर गिरते ही हैं; उसी प्रकार कुलरूप वृक्ष में माता-पिता, पुत्र, पौत्र जो भी उत्पन्न हुये हैं, वे एक दिन नष्ट होगें ही। इसमें शोक करना व्यर्थ है।
जो भवितव्यता है वह दुर्लध्य है, पूर्व में बांधे हुए कर्मों के अधीन है। कर्मों का उदय आने पर उसका फल आता ही है, रोका नहीं जा सकता है। जो उदय के आधीन इष्ट वस्तु का नाश
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