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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार [३४९ हो गया, उसका विलाप करके शोक करना ऐसा है जैसे अन्धकार में नाचना, कौन देखेगा? पूर्व में बांधे हुये कर्मों के उदय के समय में जिसकी आयु का अन्त आयेगा, वियोग का समय आयेगा उस समय उसे कौन रोक सकेगा? इसलिये दुःख छोड़कर परम धर्म में यत्न करना चाहिये। जो धनोपार्जन के लिये, परिग्रह बढ़ाने के लिये, बहुत समय तक जीवित रहने के लिये महासंक्लेश पूर्वक दुर्ध्यान करते हैं वे महामूढ़ हैं । इच्छा करने से, दुःखी होकर, पुण्य के उदय के बिना गई वस्तु कैसे प्राप्त होगी ? जो आपका इष्ट मर गया, उसे जला दिया, एक बार परमाणु धूम्र , भस्म आदि होकर उड़ गये, उन्हें प्राप्त करने के लिये जो शोक करता है, उसके समान मूर्ख और कौन दिखाई देता हैं ? इस जगत को प्रत्यक्ष इन्द्रजाल के समान देखते हुए भी शोक कैसे कर सकते हैं ? यदि मरण का, वियोग, का, हानि का दिन आ जाय तो उसे एक क्षण भी टालने को कोई इन्द्र, जिनेन्द्र, नरेन्द्र समर्थ नहीं है, इस प्रकार जानता हुआ भी जो रूदन-विलाप करता है, वह निर्जन वन में बहुत पुकारकर रोनेवाले के समान है, कौन दया करेगा ? पूर्वोपार्जित कर्म तो अचेतन है, उसमें तो दया है ही नहीं। यदि अपनी इष्ट वस्तु का नाश हो जाय तो उसका शोक करना वहाँ तो उचित है, जहाँ शोक करने से वस्तु की प्राप्ति हो जाय, अपने को सुख हो जाय, जगत में यश (कीर्ति) हो जाय, धर्म की प्राप्ति हो जाय, वहाँ तो इष्ट के वियोग का शोक भी करना ठीक है। शोक करने से कुछ भी प्राप्त नहीं होता। धर्म का नाश, बुद्धि का नाश, शरीर का नाश, इन्द्रियों का नाश, नेत्रों की ज्योति का नाश हो जाता है। प्रकट घोर दुःख, परलोक में दुर्गति, अन्य सुननेवालों में क्लेश, आपके रोग की उत्पत्ति, बल-वीर्य का नाश, व्यवहारपरमार्थ दोनों का नाश, धीरता, ज्ञान नष्ट होना इत्यादि अनेक दुःखों का कारण शोक हैं, ऐसा शोक नहीं करना चाहिये। अत: यह तिर्यचगति में अनेक जन्म उपार्जन करनेवाला इष्ट वियोगज नाम का आर्तध्यान कभी नहीं करना चाहिये। इष्ट का वियोग तो पाप का फल है, इसका शोक करने से क्या होगा ? यदि पापकर्म के नाश करने का यत्न करोगे तो फिर इष्ठ-वियोग आदि दुःख के पात्र नहीं होवोगे। जो इष्ट के वियोग से दुःख रुप क्लेशित हो रहे हैं, वे ऐसे असाता कर्म का बंध करते हैं जो आगे असंख्यात भवों तक दुःखो की परिपाटी से नहीं छूटते हैं। जो यह क्षण-क्षण में आयु नष्ट हो रही है वह काल के मुख में प्रवेश है। कोई ऐसा अनन्तकाल में ना हुआ, ना होगा जो देह धारण करके मरण को प्राप्त नहीं हुआ हो। सूर्य, चन्द्रमा आदि देवता तथा पक्षी - ये तो आकाश में ही विचरण करते हैं; मनुष्य तिर्यच आदि पृथ्वी पर ही विचरण करते हैं; मछली, कछुआ आदि जल में ही विचरण करते हैं, किन्तु काल (मृत्यु) तो स्वर्ग में, नरक में, आकाश में, पाताल में, जल में, थल में, सर्वत्र ही विचरण करता है। इससे कौन बचा सकता है ? Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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