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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार] [३४७ अचेत होकर विलाप करना, बारम्बार दुःखी होना, हाहाकार करना, वह तिर्यंचगति में गमन का कारण इष्ट वियोगज आर्तध्यान है। इष्ट के वियोग से बड़े-बड़े शूरवीरों का धैर्य छूट जाता है, महान पुरुष भी दीन के समान हो जाते हैं, हृदय फट जाता है, मरण हो जाता है, उन्मत्त-बावला हो जाता है, कुआ-बावड़ी में गिरकर मर जाता है, ऊँचे मकान-पर्वत से गिरकर मर जाता है, विष - भक्षण कर लेता है, शस्त्रादि से आत्मघात कर लेता है। इष्ट के वियोग के दुःख समान कोई दुःख नहीं है। इष्ट वियोग के दुःख से दोनों लोक नष्ट हो जाते हैं। ___कोई उत्तम पुरुष, संसार-शरीर-भोगों से विरक्त, सम्यक् श्रद्धानी, सम्यग् ज्ञानी, वीतराग सर्वज्ञ के वचनों का अवलम्बन लेनेवाला, वस्तु के सत्यार्थ स्वरुप को जाननेवाला पुरुष ही इष्ट के वियोग जनित दुःख को जीतता है। वे जीव ऐसी भावना भाते हैं-हे आत्मन् ! संसार में जितना भी तुझे संयोग मिला है, उसका नियम से वियोग होगा। वियोग को रोकने को कोई भी देवता, इन्द्र, मन्त्र, यन्त्र, औषधि, सेना, बल, कुटुम्ब , बुद्धि , मित्र, धन संपदा समर्थ नहीं है। जब इस अपने शरीर का ही वियोग अवश्य होगा, तब इस शरीर के सम्बन्धियों की क्या कथा करना? ये जो स्त्री, पुत्र, पुत्री, माता, पिता, आदि को अपना मानकर प्रीति करता है, सो तेरा सम्बन्ध इनके आत्मा से नहीं है, इनके शरीर से सम्बन्ध है। यह मुख का चमड़ा, दुर्गन्धित नासिका, चमड़े के नेत्र इनमें मोह बुद्धि से परस्पर अपने समान राग करता रहता है, किन्तु इन्हें तो एक दिन अग्नि में जलकर भस्म हो जाना है। तुम्हारे चमड़े का और इनके चमड़े का अनन्तकाल में भी कैसे सम्बन्ध मिलेगा? जिनका संयोग हुआ है, उनका नियम से वियोग होगा। माता का. पिता का. प्यारी स्त्री का. सपत पत्र का. भ्राता का. राज्य का. ऐश्वर्य का. धनसम्पदा का, महल-मकान का, देश-नगर-ग्राम का, मित्रों का, स्वामी का, सेवक का, अवश्य वियोग होगा। इसलिये इष्ट के वियोग का दुःख करके अशुभ बन्ध नहीं करो। यदि ये तुम्हारे इष्ट हैं तो तुम्हारे लिये दुःख उत्पन्न कराने का प्रयत्न कैसे करेंगे? अतः सम्यग्ज्ञानी हो तो परम धर्मरुप भाव को इष्ट मानो, जिस के द्वारा संसार के दुःखों से छूटा जा सकता है। ये स्त्री, पुत्र, कुटुम्ब, धन, परिग्रह आदि इष्ट नहीं हैं। जो ममता उत्पन्न कराकर पाप कर्म में, इन्द्रियों के विषयों में प्रवृत्ति करावें, अनीति में लगाकर दुर्गति में पहुँचावे वे किसके इष्ट ? इष्ट तो परम हितरुप धर्म में प्रवर्तन करानेवाले धर्मात्मा गुरुजन है, साधर्मी हैं, अन्य नहीं। ये कुटुम्ब के लोग तो तुम्हारे पास पुण्य के उदय से जब तक धन-संपदा है तब तक सब अपने इष्ट दिखते हैं, बिना धन के कोई अपना इष्ट नहीं मानता है। धन तो पुण्य के आधीन है, अतः पुण्य के भाव को ही इष्ट मानो। जब पुण्य का उदय आता है तो स्वर्गलोक की महान इष्ट साम्रगी, असंख्यात देवों द्वारा वंदनीय इन्द्रपना, बहुत प्रेम से भरी हुई हजारों देवांगनाये, अद्भुत भोग साम्रगी मिल जाती है। जब पाप का उदय हो तब अपना बहुत प्रिय पुत्र , यत्न से पाला हुआ शरीर ही घोर दुःख के देने वाले बैरी हो जाते हैं। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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