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________________ ३४६] Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [ श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार परिणामों में ऐसा विचार करो यह मुझे बड़ा लाभ है कि कर्म इस समय में उदय में आकर रस देकर निर्जरित हो रहा है। मुझे यह बड़ा लाभ है कि जब जिनधर्म धारण हो रहा है, उस समय में बड़ी समता से कर्म के प्रहार को सहकर कर्म के ऋण से रहित हो जाऊँगा । यदि यही कर्म किसी अन्य समय उदय में आता तो इससे अधिक बंध करके असंख्यात भवों में इसकी उलझन से नहीं छूट पाता । ऐसा भी विचार करो - ये अनिष्ट के संयोग जैसे मुझे अनिष्ट लगते हैं, उसी प्रकार अन्य जीवों को भी कष्ट देनेवाले हैं। अतः अब मैं किसी अन्य जीव को अयोग्य वचनों द्वारा, काय से अयत्नाचाररुप व मन से अन्य जीवों के दुःख हानि का चिन्तवन द्वारा कभी भी दुःखी करने की इच्छा नहीं करूँगा । इस समय में ये जो मुझे अनिष्ट संयोग मिले हैं। उनसे अंसख्यात गुणे अधिक अनिष्ट संयोग नरक - तिर्यंच पर्याय में तथा मनुष्य पर्याय अनेक बार भोगे हैं, अनेक दुर्वचन सहे हैं, अनेक प्रकार की मार के नित्य दुःख भोगे हैं, अनेक जन्मों में दारिद्र भोगा है। बोझ लादने का दुःख, मर्म स्थान में मारने का दुःख, हाथ-पैर - नासिका छेदने का दुःख, आँखें निकालने का दुःख, भूख का, प्यास का, शीत का, उष्णता का, तपन में पड़े रहने का, पवन का, दुष्ट जीवों द्वारा खाये जाने का बहुत समय तक जैल में पराधीन रहने का व बन्धन के अनेक दुःख भोगे हैं। अनेक बार अग्नि में जला हूँ, अनेक बार मरा हूँ, अनेक बार जल में डूबा हूँ, कीचड़ में फंसकर मरा हूँ। इस प्रकार तिर्यंचों में मनुष्यों में उत्पन्न होकर अनिष्ट का संयोग अनंत बार भोगा है। नरकगति के दुःख तो प्रत्यक्षज्ञानी ही जानने में समर्थ हैं, अन्य नहीं। इस संसार में जब तक रहूँगा, तब तक अनिष्ट संयोग तो रहेगा ही । मैं पाप कर्म करके पंचमकाल का मनुष्य हुआ हूँ, इसमें अनिष्ट के संयोग होने का क्या भय करना है? इसमें तो जो अनन्तकाल में भी प्राप्त होना दुर्लभ था ऐसा जिनधर्मरुप परम निधान मिल गया है। इसके लाभ से आनन्द पूर्वक मुझे अनिष्ट संयोग जनित दुःखों को भूलकर परम समता भाव से कर्म के उदय को जीतना योग्य है। इस प्रकार अनिष्ट संयोगजनित आर्तध्यान का अभाव करना । ९ । इष्ट वियोगज आर्तध्यान (२) : आर्तध्यान का दूसरा भेद इष्ट वियोजज है। इष्ट के वियोग से बहुत दुःख उत्पन्न होता । अपने चित्त को आनन्द देनेवाले - सुखों को उत्पन्न करने वाले ऐसे पुत्र का मरण हो जाय, आज्ञाकारिणी स्त्री का वियोग हो जाय, प्राणों के समान मित्र का वियोग हो जाय, बहुत संपदा - राज्य - ऐश्वर्य-भोगों को देनेवाले स्वामी का वियोग हो जाय, सुख पूर्वक जीवन यापन करनेवाली आजीविका नष्ट हो जाय, राज्य भंग हो जाय, पदवी भंग हो जाय, संपदा भंग हो जाय, सुख से रहने का स्थान जमीन मकान नष्ट हो जाय, सौभाग्य- यश नष्ट हो जाय, प्रीति करनेवाले भोग नष्ट हो जाय, वह समस्त इष्ट का वियोग है। ऐसे इष्ट के वियोग होने पर शोक, भ्रम, भय, मूर्च्छा आदि होना, उनका बारम्बार संयोग हो जाने के लिये चिन्तवन करना, रुदन करना, दुःख में Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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