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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ- सम्यग्दर्शन अधिकार [३४५ ध्यान सिखाने का कोई शास्त्र भी नहीं है, यह तो बिना शिक्षा दिये ही जीवों के होता है। अशुभ ध्यान का अभाव होने पर शुभ ध्यान होता है। ___ आर्तध्यान और उसके भेद : अशुभ ध्यान का अभाव करने के लिये प्रथम चार प्रकार के आर्तध्यान का कथन करते हैं – अनिष्ट संयोगज, इष्ट वियोगज, रोग जनित, निदान जनित - ये चार प्रकार का आर्तध्यान है – ऋत अर्थात् दुः ख , उससे उत्पन्न होनेवाला वह आर्तध्यान है। अनिष्ट संयोगज आर्तध्यान (१) : अनिष्ट वस्तु के संयोग से जब बहुत दुःख उत्पन्न होता है, उस समय तो चिन्तवन होता है वह अनिष्ट संयोगज आर्तध्यान है। अपने शरीर का नाश करनेवाले, धन का नाश करनेवाले , आजीविका को बिगाड़नेवाले, अपने स्वजनमित्रादि के न नाश करनेवाले ऐसे दुष्ट बैरी, दुष्ट राजा, राजा के दुष्ट अधिकारी, अपने दुष्ट पड़ोसी का संयोग मिलना; रोगी शरीर, घोर दरिद्रता, नीच जाति-नीच कुल में जन्म, निर्बलता, असमर्थता , अंग हीनता इत्यादि का पाना; सिंह, व्याघ्र , सर्प, श्वान, चूहा, अग्नि, जल, दुष्ट राक्षस आदि का संयोग मिलना; दुष्ट बांधव , दुष्ट कलत्र, पुत्रादि का संयोग बड़ा अनिष्ट होता है। इनके संयोग के दुःख में जो संक्लेशरुप परिणाम होते हैं, इन संयोगों का वियोग चाहने के लिये जो चितवन होता है वह अनिष्ट संयोगज आर्तध्यान है। अति शीत, अति उष्णता, अति वर्षा, डांस, मच्छर, चींटी, खटमल ( उटकण) आदि तथा दुष्टों के दुर्वचन सुनकर, चिंतवन कर, स्मरण कर परिणामों में बहुत कष्ट उत्पन्न होता है। अनिष्ट के संयोग से दिन में, रात में, घर, बाहर, किसी भी स्थान में, किसी भी समय में क्लेश नहीं मिटता है। ऐसे आर्त परिणामों से घोर कर्म का बंध होता है। यह सब अनिष्ट संयोगज आर्तध्यान का प्रथम भेद है। जो इसे परिणामों में नहीं होने देते हैं उन सम्यग्दृष्टियों के कर्म की बहुत निर्जरा होती है। जो ज्ञानी महान सत्पुरुष है वे अनिष्ट के संयोग में आर्तध्यान नहीं करते है। वे तो इस प्रकार विचार करते है – हे आत्मन्! यह तुम्हें जो अनिष्ट दुःख देनेवाली सामग्री प्राप्त हुई हैं, वह सभी तुम्हारे कमाये हुए पाप कर्म का फल है, किसी अन्य का दोष नहीं है, अन्य को अपना घात करनेवाला नहीं जानो। पूर्व में जो तुमने दुसरों का धन चुराया है, अन्याय किया है, अन्य निर्बलों को संताप उत्पन्न किया है, अन्य को कलंक लगाया है, मिथ्याधर्म की शिक्षा दी है, शीलवन्त त्यागी तपस्वियों को दोष लगाया है, खोटा मार्ग चलाया है, विकथा में लीन रहे हो, अन्याय के विषयों का सेवन किया है, निर्माल्य देव द्रव्य खाया है, उनसे बांधे हुए कर्म अब अवसर पाकर उदय में आये हैं। अब इन कर्मों के उदय में दुःखी होकर क्लेश भोगोगे तो नवीन तो नवीन अधिक पाप का बंध और करोगें; दुःखी होने से कर्म छोड़ नहीं देगा, किन्तु दुःख अधिक बढ़ जायेगा, बुद्धि नष्ट हो जायेगी, धर्म का लेश भी नहीं रह जायेगा, पाप का बंधन दृढ़ हो जायेगा। अतः अब धैर्य धारण करके सम भावों से सहो। यदि संक्लेश रहित सम भावों से सहोगे तो शीघ्र ही पाप कर्म का नाश हो जायेगा। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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