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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
इस प्रकार श्रोताओं के उत्तम, मध्यम, जघन्य अनेक भेद हैं। जिसका जैसा स्वभाव होता है उसे धर्म का उपदेश वैसा ही परिणमता है। इस धर्मोपदेश नाम से स्वाध्याय तप के प्रकरण में वक्ता - श्रोता का लक्षण कहा है। इस तरह पाँच प्रकार के स्वाध्याय का वर्णन किया।
स्वाध्याय करने से लाभ : स्वाध्याय करने से बुद्धि अतिशयवंत होती है, अभिप्राय उज्ज्वल होता है, जिनधर्म में श्रद्धान दृढ़ होता है, संशय का अभाव होता है, परवादी (अन्यमती) की शंका का अभाव होता है, परम धर्मानुराग होता है, तप की वृद्धि होती है, आचार की उज्ज्वलता होती है, अतिचार ( दोष) का अभाव होता है, पाप क्रिया का त्याग होता है, कुधर्म में राग का अभाव होता है, हेय-उपादेय की पहिचान होती है, परमेष्ठी में अतिशयरुप भक्ति होती है, सम्यग्दर्शन प्रकट होता है, संसार-शरीर-भोगों से विरागता होती है, कषायों की मंदता होती है, दया भाव की वृद्धि होती है, शुभध्यान होता है, आर्तरौद्र ध्यान का अभाव होता है, जगत में मान्य होता है, उज्ज्वल यश प्रकट होता है, दुर्गति का अभाव होता है, स्वर्ग के उत्तम सुख तथा निर्वाण के अतींद्रिय सुख की प्राप्ति होती है इत्यादि अनेक गुणों को उत्पन्न करनेवाला जानकर वीतराग सर्वज्ञ द्वारा कहे गये आगम के अभ्यास बिना मनुष्य जन्म व्यतीत नहीं करो। इस प्रकार स्वाध्याय नाम के चौथे अंतरंग तप का पाँच प्रकार का स्वरुप कहा।४।।
कायोत्सर्ग तप : अब कायोत्सर्ग नाम के तप का स्वरुप कहते हैं। बाह्य तथा आभ्यंतर उपाधि का त्याग करना वह कायोत्सर्ग है। बाह्य जो शरीर, धन, धान्य आदि का त्याग करना है वह बाह्य उपाधि त्याग है। आभ्यंतर मिथ्यात्व, क्रोध, माया, मान, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, वेद परिणामों का अभाव करना है, वह आभ्यंतर उपाधि त्याग है। बाह्य त्याग में आहार आदि का भी त्याग होता है। सन्यास के समय में आयु की पूर्णता होने पर यावज्जीवन त्याग होता है उसका आगे क्रम से सल्लेखना के प्रकरण में वर्णन करेंगे, इसलिये यहाँ उसके सम्बन्ध में विशेष नहीं लिखा ।५।
ध्यान तप : अब ध्यान नाम के तप का वर्णन करते हैं उसका स्वरुप इस प्रकार जानना-एक पदार्थ को जानते हए चिन्तवन का रुक जाना ध्यान है। वह ध्यान उत्तम संहनन वाले के अंतर्महर्त रहता है। एकाग्र चिन्तवन का सख अंतर्महर्त से अधिक काल उत्तम संहननवाले के भी नहीं रहता है। वज्रवृषभ नाराच संहनन, वज्रनाराच संहनन, नाराच संहनन, ये तीन उत्तम संहनन है। उत्तम संहननवाले के ही मनुष्यपने में चित्त का रुकना होता है। संसार में गमन, भोजन, शयन, अध्ययन, आदि अनेक क्रियायें हैं उनमें जो नियम रहित वर्तता है उसे ध्यान नहीं होता है। जहाँ एक (शुद्धात्मा) के सन्मुख होकर चित्त रुक जाता है वहाँ ध्यान है, तथा जहाँ एकाग्रता नहीं वहाँ भावना है।
प्रशस्त भावों से शुभ ध्यान होता है, अप्रशस्त भावों से अशुभ ध्यान होता है। शुभ ध्यान दा प्रकार का है - एक धर्मध्यान, दूसरा शुक्लध्यान। अशुभ ध्यान भी दो प्रकार का है-एक आर्तध्यान, दूसरा रौद्रध्यान। इस प्रकार ध्यान के चार भेद हुए। उनमें अशुभ ध्यान तो बिना यत्न के ही जीवों के होता है क्योंकि अशुभ ध्यान का संस्कार तो जीवों के अनादिकाल से चला आ रहा है। अशुभ
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