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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार ३४२] सुख का इच्छुक हो, जिसे सुख की चाहना नहीं होगी वह धर्म का श्रवण नहीं करेगा। जिसके कर्ण इंद्रिय नहीं हो या कान खराब हो गये हों तो वह किससे सुनेगा ? ३। जिसे धर्म कथा श्रवण करने की इच्छा हो, इच्छा बिना परिपूर्ण श्रवण नहीं होता है। इच्छा भी हो किन्तु प्रमाद, आलस, कुसंगति से श्रवण नहीं करे तो इच्छा भी व्यर्थ है। जो श्रवण भी करता है, किन्तु ये गुरु इस प्रकार इस अपेक्षा से कहते हैं, इतनी सावधानी रखे बिना श्रवण करना व्यर्थ है। श्रवण करने से ग्रहण भी हो, किन्तु यदि धारणा नहीं हो, याद नहीं रहे, श्रवण करते ही विस्मरण हो जाय तो श्रवण करना , ग्रहण करना भी व्यर्थ है।४।। जो विचार पूर्वक प्रश्न-उत्तर द्वारा निर्णय नहीं करता है तो श्रवण में संशय आदि ही रहेगा, तब आत्मरहित के सन्मुख कैसे होगा ? ५। ___ श्रोता को ऐसा धर्म सुनना चाहिये जो दयामय हो, सुख देनेवाला हो, युक्ति-प्रमाण-नय से जिसमें बाधा नहीं आये, भगवान सर्वज्ञ वीतराग के आगम से निकला हो, ऐसे धर्म को श्रवण करके बारंबार विचार करके ग्रहण करना चाहिये। यदि विचार रहित होकर मिथ्यात्वरुप, हिंसा का कारण धर्म ग्रहण कर लेगा तो नरकादि को प्राप्त करके दुःखी होगा ।६। जिसमें युक्ति से तथा सर्वज्ञ वीतराग के आगम से बाधा आ जाय वह धर्म नहीं है, अधर्म है, अत: श्रवण करने योग्य नहीं है। ७। हठाग्रह आदि दोष रहित हो। हठग्राही को शिक्षा नहीं लगती है।८। इस प्रकार अनेक गुणों का धारक श्रोता हो वह धर्म का उपदेश सुनकर आत्म-कल्याण करता है। श्रोता के भेद : अब यहाँ प्रकरण पाकर श्रोताओं के कुछ भेद दृष्टान्त द्वारा कहते हैं। कितने ही श्रोता मिट्टी के स्वभाव के समान होते हैं। जैसे मिट्टी पर पानी गिरजाय तब नरम हो जाती है, पश्चात् सूख जाने पर कठोर हो जाती है, उसी तरह ये श्रोता भी धर्म सुनते समय तो भावों में भीगकर कोमल हो जाते हैं, पश्चात कठोर हो जाते हैं।। कितने ही श्रोता चालनी के समान होते हैं, जो अनाज के दाने छोड़कर केवल छिलका ही ग्रहण करते हैं, उसी प्रकार ये भी धर्म कथा में सार गुण तो छोड़ देते हैं, किन्तु औगुण ग्रहण कर लेते हैं।। कितने ही श्रोता भैंसा के समान होते हैं। जैसे स्वच्छ जल से भरे सरोवर में भैंसा प्रवेश करके समस्त सरोवर को कीचड़मय कर देता है, उसी प्रकार ये भी सभा के लोगों के परिणाम मलिन कर देते हैं।३। कितने ही श्रोता हंस के समान होते हैं। जैसे हंस जल व दूध का भेद करके दूध ग्रहण कर लेता है, उसी प्रकार ये भी नि: सार छोड़कर आत्महित की बात ग्रहण कर लेते है।४। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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