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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार ३३६] पशु के समान है, मनुष्याचार ही ज्ञान के सेवन से होता है। कामसेवन, भोजन, इन्द्रिय-विषय तो तिर्यच के भी होते हैं । ज्ञान विनय का धारी निरन्तर सम्यग्ज्ञान की ही वांछा करता है, ज्ञान के लाभ ही को परम निधान का लाभ मानता है। यह ज्ञान विनय महानिर्जरा की कारण है, जिसके ज्ञान विनय होती है उसे ज्ञान के धारकों की विनय विशेषरुप से होती है। चारित्र विनय - चारित्र विनय इस प्रकार है ज्ञान-दर्शनवाले पुरुष के पंचाचार का श्रवण करने के साथ ही समस्त शरीर में रोमांच प्रकट हो जाता है, अंतरंग में भक्ति प्रकट हो जाती है, तथा विषय - कषायों के निग्रहरूप परमशांत भाव के प्रसाद से मस्तक के ऊपर हाथ जोड़कर भावों में चारित्ररूप स्वयं हो जाता है, वह चारित्र विनय है । तप विनय तप विनय इस प्रकार है जिसके भावों में संसार के दुःखों को छेदनेवाला, आत्मा को बाधा रहित सुख को प्राप्त करानेवाला, विषय- कषाय रोग के उपद्रव को जीतनेवाला, एक तप ही जिसे परम शरण दिखाई देता है उसके तप भावना होती है, उसी के तप की विनय होती है, उस ही के विनय तप होता है। तपस्वियों को उच्च सर्वोत्कृष्ट समझना, तपस्वियों की सेवा, भक्ति, वैयावृत्य, स्तुति करना वह तप विनय है। शक्ति प्रमाण इन्द्रियों का निग्रह करके, देशकाल की योग्यता के अनुसार अनशनादि तप को उद्यमी होकर धारण करना वह सब तप विनय है। - - - उपचार विनय उपचार विनय इस प्रकार है आचार्य आदि पूज्य पुरुषों को देखते ही उठकर खड़े हो जाना, सात कदम आगे जाना, हाथ जोड़कर मस्तक से लगाना, उन्हें आगे करके आप पीछे पीछे चलना, पठना -पाठन, तपश्चरण, आतापन योग आदि, नये शास्त्र का अभ्यास प्रारम्भ, विहार, वंदना आदि सभी कार्य गुरु को बतलाकर करना, गुरु के रहते हुए ऊँचे आसन पर नहीं बैठना, यह सब उपचारविनय है। यदि आचार्य आदि परोक्ष हों तो मन-वचन-काय की शुद्धि पूर्वक उन्हें नमस्कार करना, हाथ जोड़कर गुणों का स्मरण करना, गुणों की प्रशंसा करना, उनसे जो प्रतिज्ञा ली हो उसे पालन करते रहना, यह सब उपचार विनय । विनय के प्रभाव से सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति होती है, अनेक विद्यायें सिद्ध होती हैं, मद का अभाव होता है, आचार की उज्ज्वलता होती है, सम्यक् आराधना होती है, यश की उज्ज्वलता होती है। कर्म की निर्जरा होती है। - व्यवहार विनय - अन्य साधर्मियों की शिष्यों की, मंदज्ञानवालों की भी यथायोग्य विनय करना, मिथ्यादृष्टियों का भी तिरस्कार नहीं करना, मीठे वचनों से आदरपूर्वक बोलना, संतोष करनेवाले दुःख दूर करनेवाले वचन कहना ही विनय है। उद्धत चेष्टा दोनों लोकों को नष्ट कर देती है। उपचार विनय मन-वचन-काय से अनेक प्रकार की होती है । गुरुओं का तथा सम्यग्दर्शन आदि गुणों के धारकों का सोने का स्थान- बैठक का स्थान साफ करना, उनके आसन से नीचे बैठना, नीचे स्थान पर सोना, योग्यतानुसार पादस्पर्श करना, दुःख रोग आ जाय तो शरीर की टहल करके अपना जन्म सफल मानना वही विनय है। पूज्य पुरुषों के निकट थूकना नहीं, आलस नहीं दिखाना, उबासी नहीं लेना, अंगुली आदि तोड़ना-चटकाना नहीं, हंसी नहीं करना, पैर नहीं पसारना, हाथ से ताली नहीं बजाना, अंग विकार, भृकुटी विकार, अंगों का संस्कार नहीं करना चाहिये। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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