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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार [३३७ विनयवान स्वयं ऊँचे स्थान पर स्थित रहकर वंदना नहीं करे, जहाँ-जहाँ पर संयमी बैठे हों वहाँ-वहाँ जाकर वंदना करे। जो संयमियों को आते देखकर खड़े हो जाते हैं, आसन छोड़ देते है, वंदना करते हैं उनके ही विनय है। गुरुओं की आज्ञा हमारे लिये जैसी हो उसी प्रकार यदि प्रकार यदि हम अंगीकार करें तो हमारे समान पुण्यवान कोई विरला ही होगा। _ विनयरहित के व्रत, शील, संयम, विद्या सभी निष्फल हैं। विनय के प्रभाव से क्रोध, मान, वैर आदि सभी दोषों का अभाव हो जाता है। विनय बिना संसार सम्बन्धी लक्ष्मी, सौभाग्य, यश, मित्रता, गुणग्राहकता, सरलता, मान्यता, कृतज्ञता सभी नष्ट हो जाते हैं। इसलि साधुओं को तथा गृहस्थों को सकल धर्म की मूल विनय ही धारण करना श्रेष्ठ है। २।। वैयावृत्य तप : जिनमें गुणों में प्रीति, धर्म में श्रद्धान, धर्मात्मा में वात्सल्य, निर्विचिकित्सा आदि गुण होते हैं, उन्हीं के वैयावृत्य तप भी होता है। कृतघ्न के आचार्यादि की वैयावृत्य का परिणाम नहीं होता हैं। आगम में दश प्रकार के साधुओं की वैयावृत्य कही है। आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष्य, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु, मनोज्ञ-इन दश प्रकार के साधुओं की वैयावृत्य कही है। जो सम्यग्ज्ञान आदि गुणों को, तथा स्वर्ग-मोक्ष के सुखरुप अमृत के बीज व्रत-संयम को अपने हित के लिये आचरण करते हैं, वे साधु आचार्य हैं। उनकी अपने शरीर से तथा अन्य क्षेत्र, शैया, आसन, आदि द्वारा सेवा करना वह आचार्य वैयावृत्य है। आचार्यों की वैयावृत्य ही समस्त संघ की वैयावृत्य है, क्योंकि समस्त संघ, समस्त धर्म आचार्यों के प्रभाव से ही प्रवर्तता है। ___ जिन व्रत-शील के धारियों को समीपता प्राप्त होने पर जो परमागम का अध्ययन-पठन करते हैं वे साधु उपाध्याय हैं। जो महान अनशनादि तपों में प्रवर्तन करते हैं वे साधु तपस्वी हैं। श्रुतज्ञान के शिक्षण में तथा व्रत शील की भावना में जो निरन्तर तत्पर रहते हैं वे साधु शैक्ष्य हैं। रोगादि से जिनका शरीर क्लेशित हो वे साधु ग्लान हैं। जो वृद्ध मुनियों की परम्परा के साधु हैं। वे गण हैं, जो अपने को दीक्षा देनेवाले आचार्य के शिष्य साधु हैं, वह कुल है। चार प्रकार के मुनियों-ऋषि, मुनि, यति, अनगार का समुदाय वह संघ है। जो बहुत काल के दीक्षित हैं वे साधु हैं। लोक में पण्डितपने से जो मान्य हो, वक्तृत्व गुण से मान्य हो, महाकुलीनपने से लोगों में मान्य हों वे मनोज्ञ हैं। इनसे प्रवचन का , धर्म का , गौरवपना प्रकट होता है। इन दश प्रकार के मुनियों को कभी शरीर में व्याधि प्रकट हो जाय, परिषह आ जाय, भावों में मिथ्यात्वादि का उदय हो जाय तो प्रासुक औषधि, भोजन, पानी, वसतिका, संस्तरण आदि द्वारा, धर्मोपदेश द्वारा श्रद्धान की दृढ़ता कराकर, पुस्तक-पीछी-कमंडलु आदि धर्म के उपकरण देकर इलाज कराना, धर्म में दृढ़ता कराना, संतोष-धैर्य आदि धारण कराना, वीतरागता को बढ़ाना वह वैयावृत्य है। बाह्य औषधि, भोजन, पानी आदि द्रव्य का देना असंभव होने पर अपने शरीर द्वारा कफ, नासिका, मल-मूत्र, पुरीष आदि दूर करना, रात्रि जागरण करना , ऐसा वैयावृत्य परम निर्जरा का कारण है। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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