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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ- सम्यग्दर्शन अधिकार [३३५ उत्तर देने के लिये यह काव्य लिखा है। इसका अर्थ लिखते हैं - इस कलिकाल में नीति पर चलाने का उपाय दण्ड देना है। दण्ड के भय बिना कोई भी न्याय के मार्ग पर स्वयं स्वेच्छा से नहीं चलता है। दण्ड राजाओं द्वारा ही दिया जाता है, क्योंकि कलिकाल में बलवान के बिना अन्य साधर्मियों द्वारा, वृद्ध पुरुषों द्वारा, समाज द्वारा दिया गया दण्ड कोई ग्रहण नहीं करता है, कोई इनका कहना नही मानता है। बलवान राजा द्वारा दिया दण्ड ही ग्रहण करता है। इस कलिकाल में राजा भी ऐसे होने लगे हैं - जिससे उन्हें धन की प्राप्ति होती दिखाई देती है, उसे दण्ड देते हैं। यदि वह राजा को धन दे देवे तो उसे दण्ड नहीं देते हैं, निर्धन को दण्ड नहीं देते हैं। कुछ श्रम नहीं करनेवाले आश्रमवासी संयमियों के पास कुछ भी धन नहीं होता है, अत: संयम लेकर भी वे कुमार्ग पर चलते हैं, क्योंकि उन्हें राजा के दण्ड का भय तो है नहीं, जिससे वे कुमार्ग से रुक जावें। ___आचार्यों का भी दण्ड होना चाहिये, क्योंकि कलिकाल में आचार्यों का शिष्यों में अनुराग होने लगा है। जो आप को नमस्कार कर लेता है उसे दण्ड नहीं देते, अपना संघ-संप्रदाय बढ़ाने के लिये जो आपको नमोस्तु-नमस्कार करले उसे अपना जानकर दण्ड नहीं देते हैं, तब वह दण्ड के भय से रहित होकर शास्त्र से विरुद्ध आचरण करने लग जाता है। इसीलिये कलिकाल में तपस्वीजनों में भी सत्य आचार के धारी अति विरले ही दिखाई देते हैं, केवल भेषधारी ही बहुत दिखाई पड़ते हैं। अतः प्रायश्चित ही कल्याण का कारण है किन्तु गृहस्थों में प्रायश्चित की प्रवृत्ति कैसे होवे ? परमेष्ठी के प्रतिबिम्ब के समक्ष जाकर ही अपने अपराध की आलोचना करके इस प्रकार यत्न करना जिससे पुनः अपराध स्वप्न में भी नहीं बने ।१।। विनयतप : विनयतप अंतरंग तपों का दूसरा भेद है। उसके भी पाँच भेद हैं- १ दर्शन विनय, २ ज्ञान विनय, ३ चारित्र विनय, ४ तप विनय, ५ उपचार विनय। दर्शन विनय - पदार्थों के श्रद्धान में शंकादि दोषरहित निःशंक रहना वह दर्शन विनय है। सम्यग्दर्शन का परिणाम होने में हर्ष तथा सम्यक्त्व की विशुद्धता में उद्यमी रहना, सम्यग्दृष्टियों की संगति चाहना, सम्यक्त्व के परिणाम की भावना भाना, मिथ्याधर्म की प्रशंसा नहीं करना. क्योंकि मिथ्यादष्टि का जितना आचरण है वह इसलोक- परलोक में यश, प्रसिद्धि , विषय सुख, धन, संपदा की चाह पूर्वक आत्मज्ञान रहित है, बन्ध का कारण है इसलिये प्रमाण ( सत्य) नहीं है। वीतराग सर्वज्ञदेव ने जो पदार्थों का स्वरुप कहा है वह प्रमाण है-यह दर्शन विनय है। ज्ञान विनय - ज्ञान विनय इस प्रकार है - आलस रहित, खेद रहित , विषय-कषायमल- रहित, शुद्ध मन सहित, देश-काल की विशुद्धि के विधान में होशियार पुरुष, बहुत आदर पूर्वक, यथाशक्ति मोक्ष का चाहनेवाला होकर, वीतराग सर्वज्ञ द्वारा कहा गया परमागम का ज्ञान ग्रहण करना, अभ्यास करना, स्मरण करना वह ज्ञान विनय जानना। ज्ञान का अभ्यास ही जीव का हित है, ज्ञान बिना मनुष्य Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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