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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार ३३४] कर लिया, फिर ऐसी सावधानी रखना कि अपने सौ-टुकड़े हो जाँय तो भी फिर दोष नहीं लगने दे, उसका प्रायश्चित लेना सफल है। अनेक गणों के धारी. सिद्धान्त रहस्य के पारगामी. प्रशान्त मनवाले. अपरिस्त्रावी गण के धारी जैसे तपाया हुआ लोहे का गोला पानी को पीकर उसे बाहर नहीं आने देता, उसी प्रकार जो शिष्य के द्वारा आलोचना किये दोष को कभी प्रकट कर बाहर नहीं कहते, देशकाल के ज्ञाता, एकान्त में रहने वाले, आचार्यों के पहिले कहे गये अनेक गुणों के धारी उनके पास प्रायश्चित लेनेवाला हाथ जोड़कर, बहुत विनयपूर्वक , बालक के समान सरलचित होकर आत्मनिन्दा करता हुआ आलोचना करता है। जैसे रुधिर से लिप्त वस्त्र रुधिर से नहीं धुलता है, कीचड़ से कीचड़ नहीं धुलता है, उसी प्रकार दोषों से युक्त साधु भी शिष्य को निर्दोष नहीं कर सकता है। जैसे मूढ़ वैद्य रोगी का विपरीत इलाज करके उसे प्राण रहित कर देता है, उसी प्रकार अज्ञानी गुरु भी शिष्य को संसार समुद्र में डुबो देता है, निर्दोष गुरु ही प्रायश्चित देकर शुद्ध करता है। संयमी पुरुष तो एक गुरु, एक शिष्य-दो ही एकान्त में आलोचना करते हैं। आर्यिकादि प्रकट खुली जगह में एक गुरु, एक गणिनी आर्यिका , एक वह जिसे दोष लगा हो- ऐसे तीन होते हैं। जो लज्जा से , तिरस्कार के भय से, प्रायश्चित के भय से या अभिमान से दोष को शुद्ध नहीं करता है, वह आय-व्यय के ज्ञानरहित व्यापारी के समान कर्मरुप कर्जदार होकर भ्रष्ट हो जाता है। आलोचना के बिना महान तप धारण करने से भी वांछित फल नहीं मिलता है। आलोचना करके भी यदि गुरु के द्वारा दिया प्रायश्चित नहीं लेता है, तो वैद्य की बताई दवाई को नहीं खाने वाले रोगी के समान, शुद्ध नहीं होता है, व जैसे हलादि से नहीं सुधारे गये खेत में अनाज बोने से अधिक उपज नहीं होती है, अथवा जैसे बिना साफ किये दर्पण में स्वच्छ रुप दिखाई नहीं देता है, उसी तरह चित्त की शुद्धता के बिना आत्मा में चारित्र की उज्ज्वलता नहीं दिखाई देती है। अब इस कलिकाल के प्रभाव से प्रायश्चित देने वाले निर्दोष गुरु भी दिखाई नहीं देते हैं। जो स्वयं ही अनेक दोषों से लिप्त हो, वह अन्य को कैसे शुद्ध कर सकता है ? रुधिर से रुधिर कैसे धोया जाय ? आत्मानुशासन जी में कहा है: कलौ दण्डो नीतिः स च नृपतिभिस्ते नृपतयो नयन्त्यर्थार्थ तं न च धनमदोऽस्त्याश्रमवताम् । नतानामाचार्या न हि नतिरताः साधुचरिता स्तपस्थेषु श्रीमन्मणय इव जाताः प्रविरलाः ।।१४९ ।। अर्थ :- किसी शिष्य ने गुणभद्र स्वामी से पूछा- हे स्वामी ! इस काल में तपस्वी मुनियों में भी सच्चे आचरण के धारण करनेवाले अत्यंत विरले रह गये हैं, इसका क्या कारण है ? इसका Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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