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________________ ३२८] Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार उदराग्नि प्रशमन वृत्ति भिक्षा : जैसे अनेक वस्त्र, आभरण आदि से भरे भण्डार-घर में लगी हुई आग को गृहस्थ शुद्ध या अशुद्ध जल से बुझाकर अपने सामान की रक्षा करता है, उसी प्रकार साधु भी अपने उदररुप भण्डार में उत्पन्न क्षुधा - तृषादिरुप अग्नि को सुन्दरअसुन्दर ( सरस-नीरस ) भोजन से बुझाता है, वह उदराग्निप्रशमन वृत्ति है । भ्रमराहार वृत्ति भिक्षा : जैसे भ्रमर पुष्प को कुछ भी कष्ट बाधा नहीं पँहुचाता हुआ पुष्प की गंध ले जाता है, उसी प्रकार साधु भी दातार को कुछ भी बाधा नहीं हो इस तरह भोजन करता है, वह भ्रमराहार वृत्ति है। गर्तपूरण वृत्ति भिक्षा : जैसे गृहस्थ के घर में यदि कोई गड्ढा हो गया हो तो वह उस गड्ढे को धूल, पत्थर आदि से भर देता है, उसी प्रकार साधु भी उदररूप गड्ढे को रसनीरस भोजन से भरता है, उसे गर्तपूरण वृत्ति कहते हैं । इस प्रकार पाँच प्रकार से भोजन करनेवाले साधु के भिक्षा शुद्धि होती है। श्रावक भी अन्याय छोड़कर, बहुत हिंसा के कारण व्यवहार आरंभ छोड़कर, कर्म के उदय में दिये धन में संतोष धारण करके, दूसरों को कष्ट दिये बिना, न्याय से कमाये धन को, मद विषाद दीनता रहित होकर, दान का विभाग करके भोगता है । अभक्ष्यादि सदोष भोजन का त्याग करके, दिन में भोगान्तराय - लाभान्तराय कर्म के क्षयोपशम प्रमाण, रसनीरस जो मिला उसमें कुटुम्ब का विभाग व दान का विभाग करके भोजनादि करता है । गृहस्थ के लालसारहित गृद्धतारहित ही भोजन की शुद्धता है । ५ । प्रतिष्ठापन शुद्धि : संयमी पुरुष अपने शरीर के नख, केश, कफ, नाक का मैल, मूत्र मल, आदि को देश-काल जानकर, विरोध रहित, जहाँ जीवों को बाधा नहीं हो, दूसरों के परिणाम मलिन नहीं हों, ऐसे क्षेत्र में क्षेपते हैं उनके प्रतिष्ठापन शुद्धि होती है। गृहस्थ भी अपने शरीर का मल तथा जल, कजोड़ा, भस्म, मिट्टी, पत्थर यत्न से फेंकता है। जिस तरह छोटे-बड़े जीवों की विराधना नहीं हो, किसी के साथ कलह - विसंवाद नहीं हो, अपने शरीर को बाधा नहीं हो, दूसरे लोगों को ग्लानि उत्पन्न नहीं हो उस प्रकार क्षेपना चाहिये। ६। शयनासन शुद्धि : शयनासन शुद्धि साधु का प्रधान आचरण है। जहाँ स्त्रियाँ, नपुंसक चोर, शराबी, शिकारी इत्यादि पापीजनों का आना-जाना नहीं हो; जहाँ श्रृंगार, शरीर विकार, उज्ज्वल आभरण पहिने स्त्रियाँ विचरण करती हों, वेश्याओं का क्रीड़ावन, बाग, गीत-नृत्य-वादित्र से व्याप्त स्थानों को तो दूर से ही त्यागकर रहते हैं । अकृत्रिम पर्वतों की गुफा, वृक्षों के कोटर, शून्यगृह आदि आपके लिये नहीं बनवाये गये, आरंभ रहित स्थानों में तथा शुद्ध भूमि में शयन आसन करते हैं। गृहस्थ भी विषयों के विकार रहित, स्त्री नपुंसक, दुष्ट, कलह, विसंवाद, विकथादि रहित परिणामों की उज्ज्वलता जहाँ नहीं बिगड़े ऐसे स्थानों में शयन आसन करता हैं । स्थान के दोष से परिणामों में दुर्ध्यान रहता है, दुष्ट चिन्तवन होता है। अतः अपनी जीविकादि का न्यायमार्ग से साधन करके निराकुल स्थान में ही शयन आसन करना चाहिये।७। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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