SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 372
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार [३२९ वाक्य शुद्धि : साधु पृथ्वीकाय आदि जीवों की विराधना की प्रेरणा रहित कठोर-कटुक आदि पर पीड़ा के कारण वचन रहित, व्रत-शील-संयम के उपदेशरुप वचन कहता है, हित-मितमधुर मनोहर वचन कहता है वह वाक्य शुद्धि है। गृहस्थ भी जितने वचन कहता है, वह विवेक सहित कहता है। लोक विरुद्ध , धर्म विरुद्ध , हिंसा के प्रेरक, असत्य, कटुक, कर्कश आदि वचन कभी नहीं कहता है। ऐसी आठ प्रकार की संयमियों की शुद्धि का विचार करता है, भावना रखता है तो बहुत पापों से लिप्त नहीं होता है, धर्म भावना की वृद्धि करता है।८। तप भावना तप भावना गृहस्थ को भी भाने योग्य है। यद्यपि तप की प्रधानता तो मुनीश्वरों के ही होती है. तथापि गहस्थ भी यदि तप भावना भाता रहे तो रोगादि कष्ट आने पर चलायमान नहीं होता है, इन्द्रियों की विकलता को जीतता है, वृद्ध अवस्था में बुढ़ापे से बुद्धि चलित नहीं होती है, खान-पान में विकलता का अभाव होता है, संतोष वृत्ति प्रकट होती है, दीनता का अभाव हो जाता है, लोक में यश उज्ज्वल होता है, परलोक में स्वर्ग की प्राप्ति होती है। अतः तप करना ही उचित है। बाह्य तप : तप दो प्रकार का है – एक बाह्य, एक आभ्यन्तर। बाह्य तप के छह भेद हैं- अनशन, अवमौदर्य, वृत्ति परिसंख्यान, रस परित्याग, विविक्त शयनासन, कायक्लेश। ऐसे ये छह प्रकार के बाह्य तप वर्णन करते है। __ अनशन तप : अब अनशन तप का स्वरुप कहते हैं-अनशन अर्थात् भोजन का त्याग करना यह अनशन तप है। इष्ट फल की अपेक्षा रहित होकर भोजन का त्याग करना वह अनशन तप है। जो यहाँ यश के लिये, ख्याति के लिये, जगत के लोगों से पूजानमस्कारादि कराने के लिये, मंत्रसाधना के लिये, धन के लिये, ऋद्धि संपदा के लिये, बैरियों के घात के लिये, परलोक में राज्य-संपदा की प्राप्ति के लिये, कषाय से बैर से दुःखी होकर अपने प्राण घात के लिये जो अनशन करता है, वह अनशन सम्यक्तप नही है, केवल संसार परिभ्रमण का कारण है। जो इन्द्रियों के विषयों की लालसा घटाने के लिये, छह काय के जीवों की दया के लिये, रागभाव घटाने के लिये, निद्रा को जीतने के लिये, कर्मो की निर्जरा के लिये ध्यान की सिद्धि के लिये, देह का सुखियापना मिटाने के लिये, उपवास आदि करता है वह अनशन तप है। अनशन तप दो प्रकार से किया जाता है - एक काल की मर्यादा से होता है, दूसरा यावज्जीवन के लिये होता है। __सभी मनुष्य एक दिन में दो बार भोजन करते हैं, उसमें प्रातः का एक बार भोजन करना, संध्या का दूसरी बार भोजन का त्याग करना वह भी अनशन है। पहिले दिन एक बार भोजन करके दसरी बार भोजन का त्याग, दसरे दिन के दोनों बार के भोजन का त्याग तथा अगले पारणा के दिन एक भोजन त्यागकर एक बार जीमना, वह चार भोजन के त्यागरुप चतुर्थ है, इसी को उपकार कहते हैं। छह भोजन के त्याग को दो उपवास कहतें हैं, आठ भोजन को त्याग को तेला कहते हैं, दश भोजन के त्याग को चोला कहते हैं। इस प्रकार काल की मर्यादा रुप अनशन तप जानना। आयु के अंत में यावज्जीवन भोजन त्याग वह यावज्जीवन अनशन है। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy