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________________ ३२६] Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार शोधकर गमन करनेवाले गृहस्थ को इसलोक में भी गड्ढे में गिर जाने की, ठोकर लगने की, सर्प-बिच्छू आदि दुष्ट जीवों की बाधा नहीं हो पाती है, जिनेन्द्र की आज्ञा का पालन हो जाता है।४। भिक्षा शुद्धि : आहार की शुद्धिः अब मुनीश्वरों की भिक्षा शुद्धि का वर्णन करते हैं। साधु जब वन से भिक्षा के लिये नगर ग्रामादि में जाते हैं तब देश की रीति को, काल को जानकर व नगर-ग्रामादि को उपद्रव रहित जानकर जाते हैं। यदि अग्नि का उपद्रव, पर के चक्र (अन्य धर्म का प्रचार, उत्सव आदि) का उपद्रव, राजादि महन्त पुरुषों के मरण का विध्न होवे तथा अपने धर्म में विध्न जाने तो भिक्षा को नहीं जाते हैं, महान हिंसा का होना जाने तो भी नहीं जाते हैं। जिसकाल में चक्कियों के, मूसलों के बहुत तेज शब्द होते-होते बिल्कुल मंद रह जाँय, तथा अनेक भेषधारी भिक्षा लेने आ रहे हों, उस काल में मल-मूत्र की बाधा हो तो उस बाधा को मिटाकर पश्चात् पीछी से अपने शरीर का अगला-पिछला भाग शोधकर, कमंडलु- पीछी लेकर गमन करते हैं। मार्ग में अतिशीघ्रता से गमन नहीं करते हैं, विलम्ब करते हुए गमन नहीं करते हैं, मार्ग में किसी से वचनालाप नहीं करते हैं, मार्ग में वन की भूमि की, नगर की, ग्राम की शोभा नहीं देखते। जहाँ कलह, विसंवाद, कौतुक, नृत्य, गीत, आदि हो रहे हों उन्हें दूर से ही छोड़कर गमन करते हैं। मार्ग में दुष्ट तियँच,दुष्ट मनुष्य, पागल मनुष्य, स्त्री तथा पत्ते. फल. फूल, बीज, जल, कीचड़ादि जिस भूमि पर पड़े हों उसे दूर से ही छोड़कर गमन करते हैं। __ आचारांग शास्त्र में कहे देशकाल को जानने में निपुण तथा मार्ग में गमन करता साधु दातार का तथा भोजन का इस प्रकार चिन्तवन नहीं करता है कि- आज मुझे कौन दातार भोजन देगा, मुझे भोजन शीघ्र ही मिल जाय तो अच्छा हैं; मीठा, नमकीन, गरम, ठण्डा, स्वादिष्ट या बेस्वाद भोजन मिल जाय तो अच्छा है? वह तो अन्तराय कर्म के क्षयोपशम के अनुसार लाभ-अलाभ जानकर भोजन के लाभ-अलाभ में, मान-अपमान में, मन की वृत्ति को समान रखता हुआ, धर्मध्यानरुप चिन्तवन करता हुआ, चार आराधनाओं की शरण सहित, क्षुधातृषादि की वेदना का चिंतन नहीं करता हुआ भिक्षा के लिये गमन करता है। लोक निंद्य कुल में गमन नहीं करता है। उत्तमकुल के भी ऐसे घरों में प्रवेश नहीं करता है जहाँ दानशाला हो, विवाहादि हो रहा हो; मृतक का सतक हो. गान गीत हो रहा हो: नत्य के वादित्र बजने का उत्सव हो रहा हो. रुदन हो रहा हो; भिक्षा भोजन के लिये बहत लोग एकत्र हो रहे हो; कलह, विसंवाद द्यूत क्रीडायें हो रहे हों; दरवाजे बंद हों, जानेवाले को कोई मना कर रहा हो; घोड़ा, हाथी, ऊँट, बैल आदि रास्ते में खड़े हों या बंध रहे हों; अनेक मनुष्यों की भीड़ हो रही हो, संकड़े रास्ते में बहुत लोगों का संकड़ाई से आना-जाना हो रहा हो; नाभि से अधिक नीचे दरवाजे में से जाना पड़ता हो, पैरों से अधिक ऊँची भूमि पर चढ़ना पड़ता हो, ऐसे घरों में तो साधु भोजन के लिये प्रवेश ही नहीं करता है। चन्द्रमा की चाँदनी के समान धनवान-निर्धन सभी के घरों में जाता है। दीन, अनाथ, निंद्यकर्म से जीविका करने वाले, गीत-नृत्य-वादित्र से जीविका करने वाले इत्यादि अयोग्य घरों में भिक्षा के Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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