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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार] [३२५ पर रेत, धूल, तृण, पसीना आदि चिपक जाय तो उसे दूर नहीं करते वे संस्कार रहित हैं। नासिका, नेत्र, ललाट, ओष्ठ, मुकुट, मस्तक, स्कंध, हात, अंगुलि इत्यादि हिलाकर इशारा करनेरुप विकार रहित हैं। सर्वत्र क्रिया में यत्नाचार सहित प्रशम सुख की मूर्ति के समान ही दिखाई देते हैं। ऐसा लगता है मानो शरीर के होने पर भी आपको किसी अन्य से भय नहीं है तथा किसी अन्य को आप से भय नहीं है, ऐसी काय की विशुद्धता साधुओं के ही होती है। श्रावक भी जो एकदेश शुद्धि के धारक हैं ऐसे वस्त्राभरण पहिनते हैं, जिनसे स्वयं को तथा दूसरों को कामभाव उत्पन्न नहीं हो, अभिमान उत्पन्न नहीं हो, भय उत्पन्न नहीं हो। लोगों में मान्य अपने पद के अनुकूल , अवस्था के योग्य वस्त्र पहिनना तथा अंगो की चेष्टा, नेत्रों से देखना, वचन बोलना, बैठना, सोना, चलना, रागादि अभिमानादि दोष रहित प्रवर्तन करना वह कायशुद्धि है।२।। विनय शुद्धि : विनय शुद्धि इस प्रकार होती है- अरहंतादि परमगुरुओं की यथायोग्य पूजा में लीनता तथा सम्यग्ज्ञानादि में यथाविधि भक्ति सहित रहना विनय शुद्धि है। सदाकाल गुरुओं के अनुकूल प्रवर्तना, प्रश्न करने में, स्वाध्याय में, वांचन में, कथनी में, विनती में निपुणपना तथा देश-काल-भावों को जानकर निपुणतापूर्वक आचार्यादिके अनकल प्रवर्तनाआचरण करना वह विनय शुद्धि है। विनय ही समस्त चारित्रसंपदा का मूल है, विनय ही पुरुष का आभूषण हैं, विनय ही संसार समुद्र से तिरने के लिये नाव है। अतः गहस्थ को भी मन से, वचन से, काय से प्रत्यक्ष-परोक्ष विनय को धारण करना चाहिये। इसका विशेष वर्णन आगे तप के प्रकरण में करेंगे।३। ईर्यापथ शुद्धि : साधुओं के ईर्यापथ शुद्धि इस प्रकार जानना- अनेक प्रकार के जीवों के स्थान, जीवों की उत्पत्तिरुप योनि तथा जीवों के रहने के जो-जो आश्रय स्थल हैं, उन्हें जानकर यत्नाचार पूर्वक उन जीवों के कष्ट होने को दूर से ही त्यागकर गमन करते हैं। अपने ज्ञान से, सूर्य के प्रकाश में, नेत्रादि इंन्द्रियों द्वारा उजाले में देखते हुए मार्ग में चलते हैं। मार्ग में उतावलीपूर्वक शीघ्रता से गमन, विलंब करते हुये गमन, संभ्रम पूर्वक (भूलकर) गमन, विस्मयरुप-आश्चर्य करते हुए गमन, क्रीड़ा करते हुए गमन, शरीर को विकारयुक्त करते हुये गमन, दिशाओं की और देखते हुये गमन-ये गमन के दोष हैं। इन दोषों से रहित चार हाथ जमीन को आगे की ओर देखते हुये, जिस मार्ग पर अनेक मनुष्य गाड़ा-गाड़ी, बैल, गधा, आदि चल चुके हों, जिस मार्ग से प्रातः काल की वायु का स्पर्श हो गया हो, जिस मार्ग पर सूर्य की किरणों का संचार हो गया हो, उस मार्ग पर दिन में गमन करनेवाले साधुओं के ईर्या समिति होती है। ईया समिति के होने पर ही संयम प्रतिष्ठित (आदर योग्य) होता है, जैसे सुनीति होने पर ही वैभव प्रतिष्ठित होता है। इसी का एकदेश धर्म अंगीकार करनेवाले गृहस्थ को भी ईर्यापथ की शुद्धिरुप, गमन करने की भावना रखना चाहिये, तथा अपनी शक्ति प्रमाण मार्ग में कीड़ा-कीड़ी, हरित अंकुर, घास, दूब, कीचड़, नील इत्यादि को टालकर दया परिणामों से गमन करना उचित है। देख Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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