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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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तथा रस परित्याग आदि महान अनशन आदि तपों द्वारा निद्रा का अभाव करते हैं। निद्रा को जीतने के लिये तथा काम को जीतने की सावधानी के लिये अनशनादि तप हमेशा करते रहते हैं।
निद्रा में तो सभी परिणामों की सावधानी का तथा वचन, काय की सावधानी का अभाव हो जाता है। जिसे उत्तम मनुष्य जन्म तथा उत्तमधर्म का नाश करके एकेन्द्रिय समान होकर मनुष्य आयु को पूर्ण करना होता है, वह बहुत निद्रा लेता है। जो दिन में निद्रा लेता है उसका तो व्रत-संयम ही गल जाता है; खेद आलस्यादि को दूर करने के लिये रात्रि में अल्प निद्रा लेते हैं।
निद्रा-आलस तो जीव के अंतरंग महाबैरी हैं। निद्रा में हेय-उपादेय, कार्य-अकार्य, हित-अहित, योग्य-अयोग्य का विचार रहित हो जाता है। निद्रा को जीते बिना इस लोक के ही सभी कार्य नष्ट हो जाते हैं तब परमार्थरुप कार्य कैसे बनेंगे। अतः यदि विद्या, विनय, तप. संयम. स्वाध्याय, ध्यान. जाप की सिद्धि चाहते हो तो निद्रा को जीतकर खेद ग्लानि आलस को दूर करने के लिये अल्पनिद्रा लेना चाहिये।
आठ शुद्धियाँ : अब आठ प्रकार की शुद्धि का वर्णन करते हैं। यद्यपि ये आठ शुद्धियाँ तो मुनीश्वर परम वीतरागी साधुओं के होती हैं तथापि जो साधुपना धारण करने का इच्छुक तथा साधु के धर्म की भावना भाने का इच्छुक गृहस्थ है उसे ये आठ शुद्धियाँ जानने योग्य हैं। भाव शुद्धि , काय शुद्धि , विनय शुद्धि , ईयापथ शुद्धि , भिक्षा शुद्धि , प्रतिष्ठापन शुद्धि शयनासन शुद्धि , वाक् शुद्धि ये आठ प्रकार की शुद्धियाँ हैं।
भाव शुद्धि : मोहनीय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न जो मोक्षमार्ग में रुचि है, उससे परिणामों में ऐसी उज्ज्वलता होती है कि रत्नत्रय ही एक मात्र मोक्षमार्ग है, अन्य हैं सो संसार में उलझाने वाले कुमार्ग हैं -ऐसा दृढ़ श्रद्धान उत्पन्न हो जाता है। आत्मा का हित मोक्ष है, वह मोक्ष कर्मबंध रहित अवस्था है, तथा कर्मबंधनों का छूटना रत्नत्रय से ही होता है। ऐसे दृढ़ श्रद्धान-ज्ञान से उत्पन्न संसार-शरीर-भोगों से विरागतारुप समस्त रागद्वेषादि मल रहित उज्ज्वलता, वह भाव शुद्धि है।
भावों में से विषयों की इच्छा, रागद्वेषादि उपद्रव, मिथ्यात्वरुप महामल दूर हुये बिना मुनि का आचार तथा श्रावक का आचार उज्ज्वलता को प्राप्त नहीं होता है। जैसे बहुत साफ दीवार के ऊपर चित्र अच्छे बनते हैं; कीचड़ आदि से लिप्त जमीन पर बहुत होशियार चित्रकार भी अच्छी रंगोली नहीं बना सकता है, उसी प्रकार मिथ्यात्व तथा कषायादि से लिप्त पुरुष को भी सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र नहीं होते हैं। इस प्रकार यह भाव शुद्धि कही ।।
काय शुद्धि : साधुओं के कायशुद्धि कैसी होती है, वह कहते हैं। जो आवरण रहित, आभरण रहित, संस्कार रहित, विकार रहित तथा यत्नाचार सहित हैं उनकी उस शुद्धि का नाम काय शुद्धि है। जो सूत के, रेशम के, सन के, घास के, रोम के, चमड़े के, वृक्षों के, छालों के, पत्तों के वस्त्रों के आच्छादन से रहित तथा भस्मादि के लगाने से रहित हैं वह आवरण रहित हैं। उनके कायशुद्धि है। जो समस्त आभरणादि रहित हैं, जो स्नान,गंध, लेपन आदि संस्कार से रहित हैं-जैसे शरीर
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