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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार ३२२] हैं तो अपनी प्रशंसा करने से उसमें गुणवानपना प्रकट नहीं हो सकता है; जैसे स्त्री के समान हाव-भाव, विलास, विभ्रम श्रृंगार, अंजन, वस्त्रादि धारण करके स्त्री के आचरण करनेवाला नपुंसक, स्त्री नहीं हो जायगा, नपुंसक ही रहेगा। आप में गुण विद्यमान भी हों तथा कोई उसकी कीर्ति वखान, प्रशंसा करता है तो उत्तम पुरुष तो अपनी कीर्ति सुनकर लोक में लज्जा का अनुभव करते हैं, सत्पुरुषों को अपनी कीर्ति अच्छी नहीं लगती है । वह तो अपनी कीर्ति सुनकर अत्यन्त लज्जित होकर आत्मनिंदा ही करता है कि में संसारी अनेक दोषों से भरा हूँ, लोग मेरी प्रशंसा कर मेरे ऊपर बड़ा भार रख रहे हैं। प्रशंसा योग्य तो वे हैं जो आत्मा की परम विशुद्धता के इच्छुक होकर मोह, काम, क्रोधादि पर विजय प्राप्त कर चुके हैं। हम संसारी राग-द्वेष से व्याप्त, इन्द्रियविषयों के दास, परिग्रह में आसक्त अतिनिंदने योग्य हैं। जिनकी एक घड़ी भी प्रमादीपने से धर्म रहित व्यतीत होती है वे जगत में महामूढ़ हैं, निंद्य हैं। यह मनुष्य जन्म अति दुर्लभ है, फिर इसमें जिनधर्म का प्राप्त होता अति दुर्लभ है। ऐसे अवसर में भी जो धर्म छोड़कर विषयों में लीन होते हैं, वे ऐसे हैं जो अपने घर में उत्पन्न हुए कल्पवृक्ष को काटकर विष का वृक्ष लगाते हैं, चिन्तामणि रत्न को कौओं को उड़ाने में फेंक देते हैं, चिन्तामणि रत्न को कांच के टुकड़े में बेच देते हैं । इस मनुष्य जन्म की एक-एक घड़ी जो करोड़ों के धन में प्राप्त होना दुर्लभ है, वह वृथा जा रही है। मैं भी अन्य लोगों की कथा में तथा उनकी रागद्वेषरुप परिणति को देखकर कषाय सहित होकर दुर्ध्यान से मनुष्य जन्म व्यतीत कर रहा हूँ, अतः मुझ जैसा निंदा के योग्य दूसरा नहीं है इस प्रकार अपनी निंदा गर्हा करते हुए उत्तम पुरुष को अपनी प्रशंसा कैसे रुच सकती है ? नहीं रुचती है, वह तो अपने को नीचा ही देखता है। जो वचनों से अपनी प्रशंसा करता है वह नीच गोत्र कर्म का बन्ध करता है, यहाँ पर भी लोगों में महानिंद्य होता है। सत्पुरुष अपने गुण आप प्रकट नहीं करते हैं, तो भी उनके उज्ज्वल आचरण से जगत में उनके गुण विख्यात हो जाते हैं, जैसे चन्द्रमा का प्रकाश तथा शीतलता व आह्लादकपना बिना कहे ही जगत में फैल जाता है 1 परनिन्दा त्याग : पर की निंदा कभी नहीं करो। पर की निंदा करने समान जगत में दोष नहीं है। पर की निंदा महाबैर का कारण है, दुर्ध्यान का कारण है, कलह का कारण है, भय का कारण है, दुःख शोक पश्चाताप विसंवाद अप्रतीति का कारण है, निंदा का कारण है। पर की निंदा करनेवाला अपने धर्म, यश, बड़प्पन का नाश करता है । जो पर के दोष प्रकट करके स्वयं निर्दोष बनना चाहते हैं, वे दूसरे के द्वारा औषधि सेवन कर लेने से अपना निरोगपना चाहनेवालों के समान हैं। कोटि दोषों का शिरोमणि एक अन्य की निन्दा करना है । यदि जिनेन्द्र का धर्म धारण किया हैं तो दूसरों के दोष नहीं कहो । सत्पुरुष तो पर के दोष देखकर स्वयं लज्जित होते हैं, तथा अपनी सामर्थ्य प्रमाण पर के दोष ढांकते हैं, वे तो जिस प्रकार अपने अपवाद से डरते हैं, उसी प्रकार दूसरे का अपवाद होने का बड़ा भय रखते हैं। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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