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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार] [३२१ जाता है। अतः कुसंग छोड़कर शुभ संगति करना चाहिये। सज्जनों की संगति से दुष्ट भी अपने दोषों को छोड़ देते हैं। सत्संगति करने की प्रेरणा : सत्संगति से निर्गुण पुरुष भी जगत में मान्य हो जाता है, जैसे निर्गन्ध पुष्प को भी लोग देवताओं की संगति होने से अपने मस्तक पर चढ़ा लेते हैं। यद्यपि किसी एक पुरुष को भी धर्म में प्रीति नहीं है, परीषह सहने में तथा इंद्रियों के विषय त्यागने में अति पराङ्मुखपना है तो भी संयमी-त्यागी-व्रती पुरुषों की संगति में रहने के प्रभाव से , लज्जा से, भय से , अभिमान से , अन्याय के विषय-कषायों से विरक्त हो ही जाता है। जो प्रकृति से ही मंद कषायी, धर्मानुरागी, पाप से भयभीत होता है, यदि संगति मिल जाय तो उसे परम धर्म का ग्रहण हो जाता है और वह संसार के पार को भी पा लेता है। जिनसे सम्यक् धर्म का प्रवर्तन हो, जिनकी संगति से अनेक लोग विषय-कषायों से विरक्त हो जायें, त्याग-संयम-तप में लीन हो जायें, ऐसे न्यायमार्गी धर्मचर्या के धारक धर्मात्मा एक पुरुष से ही जगत शोभित होता है, कृतार्थ हो जाता है। धर्म रहित विषय-कषायी पुरुष बहुत होने से क्या साध्य है ? कल्पवृक्ष तो एक ही समस्त वेदना रहित कर देता है, वांछित सुख दे देता है, किन्तु विष के बहुत वृक्ष केवल मूर्छा, संताप, मरण के कारण होने से क्या साध्य हैं ? इस लोक में जितने भी अनर्थ पैदा होते हैं, वे सभी कुसंग से होते हैं। कुसंग बिना कोई जुआरी, चोर, पर-स्त्री लंपट, वेश्यासक्त , अभक्ष्य-भक्षक, मद्यपायी नहीं होता है। बड़े-बड़े अनर्थदोष कुसंग से ही होते हैं। अतः यदि दोनों लोकों में अपना हित चाहते हो तो कुसंग नहीं करो। प्रत्यक्ष देखते हैं जिन्होंने उत्तम कुल-उत्तम उज्ज्वल धर्म पाया है, फिर भी कुदेव-कुधर्मपाखण्डियों की उपासना करते है. भांग पीते हैं, जरदा खाते हैं. हक्का पीते हैं. रात्रि भक्षण करते हैं, वेश्या की जूठन खाते हैं, जुआ खेलते हैं, चोरी करते है, चुगली करते हैं, परधन-परस्त्री की तरफ तृष्णा से देखते हैं, जिह्वा इंद्रिय के लोलुपी हैं, निर्दय परिणामी कुवचन बोलने में प्रवृत्त, परविध्न सन्तोषी – ये सब दोष सत्संगति के बिना कुसंग से ही होते हैं। वह महापुण्याधिकारी मनुष्य है, जो इस विषम कलिकाल में कुसंग छोड़कर शुभ संगति को पा लेता है। स्वप्रशंसा त्याग - यदि जिनेन्द्र का धर्म धारण किया है तो अपनी प्रशंसा व पर की निंदा नहीं करो। जो अपने मुख से अपनी प्रशंसा करता है वह अपने यश का नाश करता है। अभिमानी के सिवाय अन्य कोई अपनी प्रशंसा करता है। अपनी प्रशंसा करनेवाला पुरुष तृण समान छोटा हो जाता है, अवज्ञा योग्य हो जाता है, गुण विद्यमान होने पर भी अपने मुख से कहने पर वह गुण रहित होकर दोषों का पात्र हो जाता है। जिसमें अन्य कुछ भी दोष नहीं हो, किन्तु बड़ा भारी दोष तो अपनी प्रशंसा करना है। अपने मुख से अपनी प्रशंसा नहीं करना वह बड़ा गुण है। अपने गुणों की प्रशंसा नहीं करनेवाले पुरुष के विद्यमान गुण नष्ट नहीं हो जाते हैं, जैसे अपने तेज की प्रशंसा नहीं करनेवाले सूर्य का तेज जगत में विख्यात होता ही है। यदि स्वयं में गुण नहीं Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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