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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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धर्म प्रवेश ही नहीं करता है। अतः मिथ्यात्व शल्य को शीघ्र ही त्यागो। माया, मिथ्यात्व, निदान इन तीनों शल्यों का अभाव हुए बिना मुनि - श्रावक का धर्म कभी नहीं हो सकता है, निःशल्य ही व्रती होता है।
कुसंगति त्याग की प्रेरणा : दुष्ट मनुष्यों का साथ नहीं करो। जिनकी संगति से पाप में ग्लानि लगती, पाप में प्रवृत्ति हो जाती है उनका संग कभी नहीं करो। जुआरी, चोर, छली, पर स्त्री लंपट, जिह्वा इंद्रिय के लोलुपी, कुल के आचार से भ्रष्ट, विश्वासघाती, मित्रद्रोही, गुरुद्रोही, धर्मद्रोही, अपयश के भय से रहित, निर्लज्ज, पाप क्रिया में निपुण, व्यसनी, असत्यवादी, असंतोषी, अतिलोभी, अतिनिर्दयी, कर्कश परिणामी, कलहप्रिय, विसंवादी, कुचाली, प्रचण्ड परिणामी, अतिक्रोधी, परलोक का अभाव कहनेवाला नास्तिक, पाप का भय रहित, तीव्र मूर्च्छा का धारक, अभक्ष्य का भक्षक, वेश्यासक्त, मद्यपायी, नीचकर्मी इत्यादि की संगति नहीं करो ।
यदि श्रावक धर्म की रक्षा करना चाहते हो, अपना हित करना चाहते हो तो कुसंग को अग्नि के समान विष के समान दुःखदायी जानकर दूर से ही छोड़ दो। जैसे का संसर्ग करोगे, उससे ही प्रीति हो जायगी; जिसमें प्रीति हो जायेगी, उसका ही विश्वास होगा; विश्वास हो जाने से उस जैसा बनने का भाव होता है । इसलिये जैसी संगति करोगे वैसे हो जाओगे। जब अचेतन मिट्टी भी संसर्ग से सुगन्धमय या दुर्गन्धमय हो जाती है तब चेतन मनुष्य संगति से दूसरों के गुणरुप या दुर्गुणरुप कैसे नहीं परिणमेगा ?
जो जैसे की मित्रता करता है वह उस जैसा ही हो जाता है। दुर्जन की संगति करने से सज्जन भी अपनी सज्जनता छोड़कर दुर्जन हो जाते हैं। जैसे शीतल जल भी अग्नि की संगति करने से अपना शीतल स्वभाव छोड़कर तप्तपने को प्राप्त हो जाता है। उत्तम पुरुष भी अधम पुरुष की संगति पाकर अधमता को प्राप्त हो जाता है। जैसे देवता के मस्तक पर चढनेवाली सुंगधित फूलों की माला भी मुर्दा के शरीर का संसर्ग करके स्पर्श करने योग्य नहीं रहती है। दुष्टों की संगति से त्यागी - संयमी पुरुषों में भी दोष सहित होने की शंका की जाती है। जैसे कलाल ( शराब बेचने - बनानेवाला) के हाथ में दूध का घड़ा होने पर भी उसमें मदिरा होने की ही शंका उत्पन्न होती है; तथा कलाल के घर में दुग्धपान करता हुआ ब्राह्मण भी लोगों को मदिरापान की शंका उत्पन्न कराता है।
लोग तो दूसरों के छिद्र देखनेवाले हैं, दूसरों के दोष कहने में आसक्त हैं । यदि तुम दुष्टों की, दुराचारियों की संगति करोगे तो लोगों में निदा को प्राप्त होकर धर्म का अपवाद (निन्दा) करावोगे, इसलिये कुसंगति नहीं करो । खोटे मनुष्यों की संगति से निर्दोष मनुष्य भी दोषसहित मिथ्यामार्गी शीघ्र हो जाते हैं। मिथ्यात्व तथा कषायों का परिचय तो अनादिकाल का है; किन्तु वीतरागभाव तो अभी महाकष्ट से उत्पन्न हुआ है, कुसंग पाकर तो वह क्षण मात्र में चला जायेगा।
अनादिकाल का मोह कर्म बड़ा प्रबल है। इसके उदय से जीव बिना सिखाये स्वयमेव विषय कषायों में प्रवर्तता है, फिर कुसंगति से तो हवा की संगति से अग्नि के समान अति प्रज्वलित हो
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