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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार]
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जैसे किसी पुरुष के पास बहुत धन है। वह उस अधिक धन के बदले में थोड़ा धन लेना चाहता है तो थोड़ा धन मिल जाता है। किन्तु यदि उसके पास थोड़ा धन हो, उसके बदले में वह अधिक धन लेना चाहे तो नहीं मिलता है। उसी प्रकार जिसने स्वर्ग की बहुत सम्पदा प्राप्त करने योग्य पुण्य बंध किया हो, बाद में निदान कर ले (थोड़ा धन मांग ले) तो उसे वहाँ पर राज्य सम्पदा मिल जाती है, व्यन्तर आदि देवों में उत्पन्न हो जाता है।
निदान शल्य : यदि अपना अधिक पुण्य हो तो निदान करने से उसका घात होकर, तुच्छ सम्पदा प्राप्त हो जाती है, पश्चात् संसार में परिभ्रमण करना ही निदान का फल है। जैसे सूत की लम्बी डोरी से बंधा पक्षी दूर तक उड़ गया हो तो भी वापिस उसी स्थान पर आ जाता है, उसके दूर तक उड़ जाने से क्या लाभ हुआ ? पैर तो सूत की डोरी से बंधा है, अन्यत्र जा नहीं सकेगा। उसी प्रकार निदान करनेवाला बहुत दूर स्वर्ग आदि में महर्द्धिक देव भी हो गया हो तो भी संसार में ही परिभ्रमण करेगा। देवलोक में जा करके भी निदान के प्रभाव से एकेन्द्रिय तिर्यंचों में, पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में तथा मनुष्यों में आकर के पाप एकत्र करके ( संचय करके) बहत समय तक परिभ्रमण करता है।
जैसे ऋणवान कैदी जैलर से वायदा करके कुछ समय तक के लिये जेल से छूटकर अपने घर में आकर सुख से रहता है, तो भी वायदा का समय पूरा हो जाने पर वापिस जेल में जाकर रहना पड़ता है, उसी प्रकार निदान सहित पुरुष भी तप-संयम से पुण्य बांधकर स्वर्गलोक में चला जाता है, वहाँ की आयु पूर्ण करके स्वर्ग से आकर संसार में ही फिर परिभ्रमण करता है।
यहाँ ऐसा जानना : जिसने मुनिपने में-श्रावकपने में मंदकषाय के प्रभाव से व तपश्चरण के प्रभाव से अहमिन्द्रों में तथा स्वर्ग में उत्पन्न होने का पुण्य संचय किया हो, यदि वह बाद में भोगों की वांछारूप निदान करता है तो भवनत्रिक आदि अशुभ देवों में उत्पन्न हो जाता है। जिसके अधिक पुण्य हो, यदि वह अल्प पुण्य के फल के योग्य निदान करता है तो अल्प पूण्य वाले देव-मनुष्यों मे उत्पन्न हो जाता है. अधिक पण्यवाले देव-मनष्यों में उत्पन्न नहीं होता है। जो निर्वाण सुख को तथा स्वर्गादि के सुख को देनेवाले मुनि-श्रावक के उत्तम धर्म को धारण करके निदान करके उसे बिगाड़ता है, वह मानो ईंधन के लिये कल्पवृक्ष को काटता है। इस प्रकार निदान शल्य के दोषों का वर्णन किया। ____ माया शल्य : मायाशल्य के दोषों का वर्णन कौन कर सकता है ? पहिले मायाचार के दोष कह ही आये हैं। मायाचारी के व्रत, शील, संयम सभी भ्रष्ट हैं। यदि भगवान जिनेन्द्र द्वारा प्ररूपित धर्म धारण करके अपने आत्मा की दुर्गतियों के दुःखों से रक्षा करना चाहते हो तो करोड़ो उपदेशों का सार एक उपदेश यह है कि माया शल्य को हृदय में से निकाल दो; यश और धर्म दोनों का नाश करनेवाला मायाचार त्याग कर सरलता अंगीकार करो।
मिथ्यादर्शन शल्य : मिथ्यात्व का पहिले वर्णन कर आये हैं, वही समस्त संसार का बीज है। मिथ्यात्व के प्रभाव से अनन्तानन्त परिवर्तन किये हैं। मिथ्यात्व का जहर उगले बिना सत्य
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