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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ३१८] [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार सम्यग्दृष्टि तो भोगों की वांछा से रहित होता है। उसे तो इन्द्र-अहमिन्द्र लोक के जो सुख हैं वे सुखाभास, विनाशीक, पराधीन, दुःखरुप दिखाई देते हैं। सम्यग्दृष्टि को तो आत्मीक, स्वाधीन, अतीन्द्रिय सुख का अनुभव हुआ है, अतः वह इंद्रियजनित आताप से महाक्लेश से भरे, तृष्णारुप आताप को बढ़ानेवाले विषयों के आधीन सुख को कैसे सुख मानेगा ? जिसने अमृत का स्वाद चखा है वह कटुक महादुर्गन्धित आताप उत्पन्न करनेवाली कडुवी खली की इच्छा कैसे करेगा? सम्यग्दृष्टि की तो ऐसी इच्छा होती है: दुक्खक्खय कम्मक्खय समाहिमरणं च वोहिलाहो य। एयं पत्थेयव्वं ण पत्थणीयं तओ अण्णं ।।१२१९ ।। भ. आराधना __ अर्थ :- हमारे शरीर धारण आदि जन्म, मरण क्षुधा, तृषा आदि दुःखों का क्षय हो, हमारी आत्मा के गुणों को नष्ट करनेवाले मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय कर्मों का क्षय हो, इस पर्याय में चार आराधना धारणकर समाधिपूर्वक मरण हो, बोधि जो रत्नत्रय उसकी प्राप्ति हो- ऐसी योग्य प्रार्थना सम्यग्दृष्टि करते हैं। इससे भिन्न अन्य प्रकार की प्रार्थना इस भव के लिये या परभव के लिये करना योग्य नहीं है। ___संसार में परिभ्रमण करते हुये जीव ने उच्चकुल-नीचकुल, राज्य-ऐश्वर्य, धनाढ्यतानिर्धनता, दीनता, रोगीपना-निरोगीपना, रूपवानपना-विरूपपना, निर्बलपना – बलवानपना, पण्डितपना-मूर्खपना, स्वामीपना-सेवकपना, राजापना-रंकपना, गुणवानपना-निर्गुणपना अनन्तानन्तबार पाया है और छोड़ा है, इसलिये इस क्लेशरूप संयोग-वियोगरूप संसार का सम्यग्दृष्टि निदान कैसे करेगा ? इस संसार में जब अनन्त पर्यायें दुःख की प्राप्त होती हैं, तब एक पर्याय इद्रियजनित सुख की प्राप्त होती है, फिर अनन्तबार दुःख की पर्यायें मिलती हैं। इस प्रकार परिवर्तन करते हुये इन्द्रिय जनित सुख भी अनन्तबार पाया है। अब सम्यग्दृष्टि होकर इन्द्रियों के सुख की वांछा कैसे करेगा? इस संसार में स्वयंभू रमण समुद्र के समस्त जल के बराबर तो दुःख हैं, तथा एक बाल की नोंक पर जितना जल लगता है उसके अनन्तभाग करने पर उसमे से एक भाग (अनन्तवें भाग) के बराबर इन्द्रियजनित सुख हैं। इससे तृप्ति कैसे होगी ? भोगों के संयोग तथा इष्ट सम्पदा के संयोग का जितना सुख होता है, उससे असंख्यात गुणा उसके वियोग के समय दुःख होता है। जिसका संयोग होता है, नियम से उसका वियोग होता ही है। जैसे शहद से लिपटी तलवार की धार को जो जिह्वा से चाँटता है उसे जितनी देर का स्पर्श है उतनी देर मिठास का सुख होता है किन्तु जिहा कटकर गिर जाने से उसका महादुःख बहुत समय तक होता है; उसी प्रकार विषयों के संयोग का सुख जानना। जैसे किंपाक फल देखने में सुन्दर है, खाने में मीठा है, किन्तु पश्चात् प्राणों का नाश कर देता हैं; जहर मिला लड्डू खाने में तो मीठा है, किन्तु बाद में पचने पर महादुःख देकर प्राणों का नाश करता है; उसी प्रकार भोगजनित सुख जानना। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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