________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार
[३१७
जा सकता है, राजा के द्वारा लूटा नहीं जा सकता है, स्वदेश-परदेश में इसका स्वरुप कभी भी बदलता नहीं है, किसी के बिगड़ता से बिगाड़ता नहीं है, धन से खरीदा नहीं जा सकता है। आकाश में, पाताल में, दिशा में, पहाड़ में, जल में, तीर्थ में, मंदिर में कहीं भी धर्म रखा नहीं है, धर्म तो आत्मा का निज स्वभाव है। धर्म का लाभ (प्राप्ति) सम्यग्ज्ञानश्रद्धान से होता है।
धर्म करना इतना सुगम है कि बालक-बृद्ध-युवा, धनवान-निर्धन, बलवान-निर्बल , सहायसहित- सहायरहित, रोगी-निरोगी सभी के द्वारा धारण किया जा सकता है, स्वाधीन है। धर्म को धारण करने में कुछ खेद, क्लेश, अपमान, भय, विषाद, कलह, शोक, दुःख कभी नहीं होता है। धर्म धारण करना दुर्लभ नहीं है। इसमें कुछ भी बोझा उठाना नहीं है, दूर देश में जाना नहीं है, भूख-प्यास-शीत-उष्णता की वेदना सहना नहीं है। किसी से विसंवाद झगड़ा नहीं है, अत्यन्त सुगम समस्त क्लेश दुःख रहित स्वाधीन आत्मा का ही सच्चा परिणमन है। इसलिये समस्त संसार के परिभ्रमण से छूटकर अनन्त ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, धारक सिद्धदशा इस धर्म धारण करने का फल है। इस प्रकार दश लक्षण धर्म का संक्षेप में वर्णन किया।
व्रती का स्वरुप : जिसके शल्यों का अभाव हो जाता है वह व्रती है। शल्यसहित के व्रत कभी नहीं होता है। अतः श्रावक को तीन शल्यों का स्वरुप अवश्य जानना चाहिये। निदाशल्य, मायाशल्य, मिथ्यादर्शनशल्य- ये तीनों ही शल्ये व्रतों का घात करनेवाली हैं।
निदान शल्य : निदान शल्य के तीन भेद हैं-प्रशस्त निदान, अप्रशस्त निदान, भोगार्थ निदान-ये तीनों ही प्रकार के निदान संसार के कारण है। यहाँ निदान का अर्थ आगामी काल की वांछा से है। संयम धारण करने के लिये उत्तम कुल, उत्तम संहनन, उत्तम बलवीर्य, शुभ संगति तथा बंधुजनों की धर्म में सहायता, उज्ज्वल बुद्धि आदि का चाहना वह प्रशस्त निदान है।
अभिमान के लिये अपनी आज्ञा, आदर तथा उच्चता दिखाने के लिये उत्तम कुल, जाति, भली बुद्धि , प्रबल शक्ति , तथा आचार्यपना, गणधरपना, तीर्थकरपना इत्यादि की चाह करना वह अप्रशस्त निदान है। क्रोधी होकर दूसरों को मारने की इच्छा करना, दूसरों की स्त्री, पुत्र, राज्य, ऐश्वर्य के नाश की इच्छा करना वह भी अप्रशस्त निदान है। __संयम धारण करके तथा घोर तपश्चरण करके उसके फल में इन्द्रियों के विषय, राज्य, ऐश्वर्य, देवपना, अनेक अप्सराओं का स्वामीपना, जातिकुल में उच्चपना, चक्रीपना आदि चाहना वह भोगार्थनिदान है। यह निदान दीर्घकाल तक संसार में परिभ्रमण करानेवाले जानना।
संयम के प्रभाव से समस्त कर्मों का नाश कर अतीन्द्रिय अविनाशी निर्वाण का अनन्तसुख प्राप्त होता है। उस संयम का पालन करके भोगों की इच्छा करना तो उसी प्रकार की मूर्खता है जैसे कोई चिन्तामणि रत्न को एक कौंड़ी में बेच देता है, अपनी रत्नों से भरी समुद्र में दौड़ती हुई नाव को ईंधन के लिये तोड़ता है, धागे के लिये मणियों के हार को तोड़ता है, राख के लिये गोशीर चंदन को जला डालता है। जो इच्छा करता है उसका पुण्य भी नष्ट हो जाता है, तथा पाप का बंध हो जाता है। पुण्य का बंध तो निर्वांछक भाव से होता है।
Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com