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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार होने लगते हैं, परिग्रह में आसक्ति कम होने लगती है, वैसे-वैसे ही दुःख कम होने लगता है। जैसे बड़े भार से दु:खी पुरुष भार रहित होने पर सुखी हो जाता है, उसी प्रकार परिग्रह की वासना मिट जाने से सुखी हो जाता है। समस्त दःख तथा समस्त पापों की उत्पत्ति का स्थान यह परिग्रह है। ___ जैसे नदियों से समुद्र तृप्त नहीं होता है, ईंधन से अग्नि तृप्त नहीं होती है उसी तरह परिग्रह से आशा की प्यास नहीं बुझती है। आशारुपी गड्ढा अगाध गहरा है, जिसका तल स्पर्श नहीं है। ज्यों-ज्यों इसमें धन धरो, त्यों-त्यों गड्ढा बढ़ता जाता है। जो आशारुपी गड्ढा निधियों से नहीं भरा जा सकता वह अन्य संपदा से कैसे भरा जा सकता है ? किन्तु ज्योंज्यों परिग्रह की आशा त्याग करो. त्यों-त्यों वह भरता चला जाता है। अतः समस्त दु:ख दूर करने में एक त्यागधर्म ही समर्थ है। त्याग ही से अंतरंग-बहिरंग बंधन रहित अनन्त सुख के धार बनोगे। परिग्रह के बंधन में बंधे जीव परिग्रह के त्यागने से ही छूटकर मुक्त होते हैं। अतः त्यागधर्म धारण करना ही श्रेष्ठ है।
आकिंचन्य धर्म : हे आत्मन्! इस देह, स्त्री, पुत्र, धन, धान्य, राज्य, ऐश्वर्य आदि में एक परमाणुमात्र भी तुम्हारा नहीं है। वे सब पुदगल द्रव्य की अवस्थायें हैं, जड़ हैं. विनाशीक है. अचेतन हैं। इन परद्रव्यों में 'अहं' ऐसा संकल्प तीव्र दर्शनमोह कर्म के उदय बिना कौन करा सकता है ? इस परद्रव्य में 'अहं' ऐसी आत्मपने की मिथ्या मान्यतारुप संकल्प मुझे कभी नहीं हो, मैं तो अकिंचन हूँ। इस प्रकार की आकिंचन्य भावना के प्रभाव से कर्म के लेप रहित यहाँ ही समस्त बंधरहित हो जाता है। अतः साक्षात् निर्वाण का कारण आकिंचन्य धर्म ही धारण करो।
ब्रह्मचर्य धर्म : कुशील महापाप है, संसार परिभ्रमण का बीज है। ब्रह्मचर्य के पालनेवाले से हिंसादि पापों का प्रचार दूर भागता है। इसमें सभी गुणों की सम्पदा निवास करती है, इससे जितेन्द्रियपना प्रकट होता है। ब्रह्मचर्य से कुल-जाति आदि भूषित होते हैं, परलोक में अनेक ऋद्धियों का धारक देव होता है।
धर्म कैसे प्रगट होता है ? भगवान अरहन्त देवाधिदेव के मुखारविंद से प्रकट हुआ दशलक्षण धर्म आत्मा का स्वभाव है, परवस्तु नहीं है। क्रोधादि कर्मजनित उपाधि दूर होने
वयमेव आत्मा का स्वभाव प्रकट हो जाता है। क्रोध के अभाव से क्षमागुण प्रकट होता है, मान के अभाव से मार्दव गुण प्रकट है, माया के अभाव से आर्जव गुण प्रकट होता है, लोभ के अभाव से शौच गुण प्रकट होता है, असत्य के अभाव से सत्यगुण प्रकट होता है, कषायों के अभाव से संयम गुण प्रकट होता है, इच्छा के अभाव से तप गुण प्रकट होता है, पर में ममता के अभाव से त्याग गुण प्रकट होता है, परद्रव्यों से भिन्न अपने आत्मा का अनुभव होने से आकिंचन्य गुण प्रकट होता है, वेद के अभाव से आत्म स्वरुप में प्रवृत्ति करने से ब्रह्मचर्य गुण प्रकट होता है।
धर्म का स्वरुप : यह दश प्रकार का धर्म आत्मा का स्वभाव है। यह धर्म किसी छीनने वाले द्वारा छीना नहीं जा सकता है, लूटनेवाले द्वारा लूटा नहीं जा सकता है, चोर द्वारा चुराया नहीं
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