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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार । [३१५ मस्तक के ऊपर धारण करते हैं। असत्यवादी यहाँ भी अपवाद, निंदा करने योग्य होता है, सभी की अप्रतीति का कारण है, बंधु-मित्रादि भी अवज्ञा करके छोड़ जाते हैं, राजा द्वारा जिह्वाछेद-सर्वस्व हरणादि दण्ड पाता है। परलोक में तिर्यचगति में वचन रहित एकेंद्रिय विकलत्रयादि में असंख्यात भव धारण करता है। अतः सत्यधर्म का धारण करना ही श्रेष्ठ है। शौच धर्म : जगत में जिसका आचरण पवित्र होता है, वही पूज्य होता है। शुचि का अर्थ पवित्रता-उज्जवलता है। जिसकी आहार-विहार अदि समस्त प्रवृत्ति हिंसा रहित हो, हिंसा के भय से यत्नाचार सहित हो, अन्य के धन में इच्छा रहित हो, अन्य की स्त्री में वांछा कभी स्वप्न में भी नहीं हो, वहीं उज्ज्वल आचरण का धारक है, उसको ही जगत पूज्य मानता है। निर्लोभी का सभी लोग विश्वास करते हैं, वही लोक में उत्तम है, ऊर्ध्वलोक में उत्तमगति का पात्र है, लोभरहित का बहुत उज्ज्वल यश प्रगट होता है। लोभी महामलिन सभी दोषों का स्थान है। लोभी को निंद्य कर्मों से प्रीति होती है। लोभी को ग्राह्य-अग्राह्य , खाद्य-अखाद्य, कृत्य-अकृत्य का विचार ही नहीं होता है। यहाँ लोक में भी उसकी निन्दा, धर्म से पराङ्मुखता, निर्दयता प्रकट देखते ही हैं। लोभी धर्म, अर्थ, काम को नष्ट करके कुमरण करके दुर्गति में चला जाता है। लोभी के हृदय में सद्गुणों को कोई स्थान नहीं रहता है। लोभी को इसलोक में तथा परलोक में अचिन्त्य क्लेश व दुःख प्राप्त होता है। अतःशौचधर्म का धारण करना ही श्रेष्ठ है। संयम धर्म : संयम ही आत्मा का हित है। इस लोक में संयम का धारक सभी लोगों द्वारा वंदने योग्य है, किसी भी पाप से लिप्त नहीं होता है, इसकी इस लोक में व परलोक में अचिन्त्य महिमा है। असंयमी प्राणों का घात करके तथा विषयों में अनुराग करके अशुभ कर्मों का बन्ध करता हुआ दुःख भोगता है। अत : संयमधर्म ही जीव का हित है। तप धर्म : कर्मों का संवर तथा निर्जरा करने का प्रधान कारण तप है। तप ही आत्मा को कर्म मल रहित करता है। तप के प्रभाव से यहाँ ही अनेक ऋद्धियाँ प्रकट हो जाती हैं, तप का अचिन्त्य प्रभाव है। तप बिना काम को, निद्रा को कौन मारे ? तप बिना इच्छाओं को कौन मारे ? इंन्द्रियों के विषयों को मारने में तप ही समर्थ है, आशारुपी पिशाचिनी तप से ही मारी जाती है, काम पर विजय तप से ही होती है। तप की साधना करनेवाला परिषहउपसर्ग आदि आने पर भी रत्नत्रय धर्म से च्यत नहीं होता है। अतः तपधर्म को धारण करना ही उचित है। तप किये बिना संसार से छुटकारा नहीं होता है। चक्रवर्ती भी राज्य को छोड़कर तप धारण करके तीन लोक में वंदने योग्य पूज्य हो जाते हैं। जो तप को छोड़कर राज्य ग्रहण करता है वह अतिनिंद्य थू-थू-कार करने योग्य हैं, तिनके से भी छोटा हो जाता है। अतः तीनलोक में तप समान महान अन्य कुछ भी नहीं है। त्याग धर्म : परिग्रह समान भार अन्य नहीं है। जितने भी दुःख, दुर्ध्यान, क्लेश, बैर, वियोग, शोक. भय अपमान हैं वे सभी परिग्रह के इच्छक के होते हैं। जैसे-जैसे परिग्रह से परिणाम भिन्न Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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