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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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है। क्रोधी है वह धर्मात्मा, संयमी, शीलवान, मुनि तथा श्रावकों को चोरी व अन्याय के झूठे दोष, कलंक लगाकर दूषित करता है । क्रोध के प्रभाव से ज्ञान कुज्ञान हो जाता है, आचरण विपरित हो जाता है, श्रद्धान भ्रष्ट हो जाता है, अन्याय में प्रवृत्ति हो जाती है, नीति का नाश हो जाता है, अत्यन्त हठी होकर विपरीत मार्ग का प्रवर्तक हो जाता है, धर्म-अधर्म उपकार- अपकार के विचार रहित कृतघ्नी हो जाता है । अतः यदि तुम वीतराग धर्म को चाहते हो तो कभी क्रोध भाव को प्राप्त नहीं होना ।
मार्दव धर्म : मार्दव अर्थात् कठोरता रहित कोमल परिणामी जीव में गुरुओं की बड़ी कृपा रहती है। मार्दव परिणामी को साधु पुरुष भी साधु मानते हैं । कठोरता रहित पुरुष ही ज्ञान का पात्र होता है। मान रहित कोमल परिणमी को जैसा गुण ग्रहण कराना चाहे तथा जैसी कला सिखाना चाहें वह वैसी ही कला व गुण सीख लेता है । समस्त धर्म का मूल समस्त विद्याओं का मूल विनय है । विनयवान सभी को प्रिय होता है। अन्य गुण जिसमें नहीं हों ऐसा पुरुष भी विनयगुण से मान्य हो जाता है । विनय परम आभूषण है। कोमल परिणामी में ही दया भाव रहता है। मार्दव से स्वर्गलोग की अभ्युदय - सम्पदा तथा निर्वाण की अविनाशी सम्पदा प्राप्त हो जाती है।
कठोर परिणामी को शिक्षा नहीं लगती है । साधु पुरुष भी अविनयी कठोर परिणामी को दूर से ही त्यागने का परिणाम करते हैं। जैसे पाषाण में जल प्रवेश नहीं करता है, उसी प्रकार सद्गुरुओं का उपदेश कठोर पुरुष के हृदय में प्रवेश नहीं करता है। जो पाषाणकाष्ठादि नरमाई लिये होते हैं उनका तो बाल-बाल बराबर भी जहाँ जैसा गढ़ना चाहें, छीलना चाहें, वहाँ उतना बाल बराबर भी उतर जाता है, छिल जाता है तथा जैसी सूरत की मूरत गढ़ना चाहें, वैसी ही बन जाती है; किन्तु कोमलता रहित में जहाँ टांकी - छैनी लगाते हैं वही चिड़ककर - उतरकर दूर जा पड़ता है, शिल्पी के अभिप्राय अनुसार गढ़ाई में नहीं आता है, वैसे ही कठोर परिणामी को यथावत् शिक्षा नहीं लगती है।
अभिमानी का समस्त लोक बिना किये ही बैरी हो जाता है, परलोक में तिर्यच तथा नीच मनुष्यों में असंख्यातकाल तक अनेक प्रकार से तिरस्कार का पात्र होता है। अभिमानी किसी को भी प्रिय नहीं लगता हैं । अतः कठोरता छोड़कर मार्दव भावना ही निरन्तर धारण करो ।
आर्जव धर्म : कपट सभी अनर्थों की मूल है, प्रीति तथा प्रतीति का नाश करने वाला है। कपटी में असत्य, छल, निर्दयता, विश्वासघात आदि सभी दोष रहते हैं। कपटी में गुण नहीं किन्तु समस्त दोष ही रहते हैं । मायाचारी यहाँ अपयश को पाकर फिर नरक - तिर्यंचादि गतियों में असंख्यातकाल तक परिभ्रमण करता है । मायाचार रहित आर्जवधर्म के धारक में सभी गुण रहते हैं, समस्त लोक की प्रीति तथा प्रतीति का पात्र होता है, परलोक में देवों द्वारा पूज्य इन्द्र-प्रतीन्द्र आदि होता है । अतः सरल परिणाम ही आत्मा का हित है।
सत्य धर्म : सत्यवादी में सभी गुण रहते हैं । सत्यवादी सदाकाल कपटादि दोष रहित होकर जगत में भी मान्यता को प्राप्त होता है, तथा परलोक में अनेक देव, मनुष्यादि उसकी आज्ञा अपने
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