SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 355
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ३१२] [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार एकदेश धर्म का धारक गृहस्थ भी उस आकिंचन्य धर्म को ग्रहण करने की इच्छा रखता है। जो गृहाचार में मंदरागी होकर अतिविरक्त होता है, प्रामाणिक परिग्रह रखता है, आगामी वांछा रहित है, अन्याय का धन परिग्रह कभी नहीं ग्रहण करता है, अल्प परिग्रह में अति संतोषी होकर रहता है. परिग्रह को दःख का देनेवाला तथा अत्यन्त अस्थिर मानता है. उसके ही आकिंचन्य भावना होती है। इस प्रकार आकिंचन्य धर्म का वर्णन किया।९। उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म अब उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म के स्वरुप का वर्णन करते हैं। समस्त विषयों में अनुराग छोड़कर ब्रह्म जो ज्ञायक स्वभाव आत्मा उसमें चर्या अर्थात् प्रवृत्ति करना वह ब्रह्मचर्य हैं। हे ज्ञानीजनो! यह ब्रह्मचर्य नाम का व्रत बड़ा दुर्द्धर है। सभी बेचारे जो विषयों के वश होने से आत्मज्ञान से रहित हैं, वे इसे धारण करने में समर्थ नहीं हैं। जो मनुष्यों में देव के समान हैं वे इसे धारण करने में समर्थ हैं। अन्य रंक, विषयों की लालसा के धारक ब्रह्मचर्य धारण करने में समर्थ नहीं हैं। यह ब्रह्मचर्यव्रत महादुर्द्धर है। जिसके ब्रह्मचर्य होता है उसे समस्त इन्द्रियों तथा कषायों को जीतना सुलभ है। हे भव्य हो! स्त्रियों के सुख में रागी जो मनरुप मदोन्मत्त हाथी है उनको वैराग्यभावना में रोक करके, तथा विषयों की इच्छा का अभाव करके दुर्द्धर ब्रह्मचर्य धारण करो। यह कामभाव चित्तरुप भूमि में उत्पन्न होता है। काम से सताये जाने पर यह जीव नहीं करनेयोग्य ऐसे पाप भी कर डालता है, यह काम मन का मथन करता है, मन के ज्ञान को नष्ट कर देता है, इसी कारण इसे मनमथ कहते हैं, ज्ञान के नष्ट हो जाने पर ही स्त्रियों के महादुर्गन्धयुक्त निंद्य शरीर को रागी होकर सेवन करता है। कामभाव से अंधा हो जाने पर महा अनीति को प्राप्त होकर अपनी तथा परकी नारी का विचार ही नहीं करता है। इस अन्याय से मैं यहाँ पर ही मारा जाऊँगा। राजा का तीव्र दण्ड भोगना पड़ेगा, यश मलिन हो जायगा, धर्म से भ्रष्ट हो जाऊँगा, सत्यार्थ बुद्धि नष्ट हो जायेगी, मरण करके नरकों में घोर दुःख असंख्यातकाल पर्यन्त भोगना होंगे, फिर असंख्यातकाल तक तिर्यंचों के दुःखरूप अनेक भव धारण करना होंगे, फिर कुमनुष्यों में, अंधा, लूला , कुबड़ा, दरिद्री, इन्द्रिय विकल, बहरा, गूंगा, चांडाल, भील, चमारों के नीच कुलों में उत्पन्न होकर ,फिर त्रस स्थावरों में अनन्तकाल परिभ्रमण करूँगा- ऐसा सत्य विचार कामी के उत्पन्न नहीं होता है। इस काम के नाम के अर्थ भी जगत के जीवों को स्पष्ट प्रकट करते हैं। कं अर्थात् खोटा, दर्प अर्थात् गर्व उत्पन्न करता है, अतः इसे कंदर्प कहते हैं। अति कामना अर्थात् इच्छा को उत्पन्न करके दुःखी करता है, अतः इसे काम कहते हैं। इसके कारण अनेक जीव तिर्यच तथा मनुष्यों के भवों में लड़-लड़कर मर जाते हैं, अतः इसे मार कहते हैं। यह संवर का बैरी है, अतः इसे संवरारि कहते हैं। बह्म जो तप-संयम उससे यह सू अर्थात् सुवति चलायमान करता है, अतः इसे ब्रह्मसू Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy