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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार ] [३१९ रहा हूँ। मिथ्यात्व नाम के कर्म के उदय से अपने स्वरुप के ज्ञान से रहित होकर देहादि परद्रव्यों को अपना स्वरुप जानकर अनन्तकाल से मैनें परिभ्रमण किया है। अब कोई आवरणादि के किंचित् दूर होने से श्रीगुरुओं के द्वारा उपदेशित परमागम के प्रसाद से अपना तथा पर में स्वरुप का ज्ञान हुआ है। जैसे रत्नों का व्यापारी जड़े हुए पाँच वर्ण के रत्नों के आभरणों में गुरु की कृपा से तथा निरन्तर अभ्यास से मिले हुए डाक के रंग को तथा मणि के रंग को, तोल को तथा मूल्य को अलग-अलग जान लेता है; उसी प्रकार परमागम के निरन्तर अभ्यास से मेरे ज्ञान स्वभाव में मिले हुए राग, द्वेष, मोह, कामादि, मैल को भिन्न जाना है; तथा अपने ज्ञायक स्वभाव को भिन्न जाना है। इसलिये अब जिस प्रकार से भी राग-द्वेष - मोहादि भावकर्मों में तथा कर्मों के उदय से उत्पन्न हुए विनाशीक शरीर, परिवार, धन संपदा आदि परिग्रह में मुझे ममताबुद्धि फिर अन्य जन्म में भी नही उत्पन्न होवे, उस प्रकार से आकिंचन्य भावना भाता हूँ। यह आकिंचन्य भावना मुझे अनादिकाल से नहीं उत्पन्न हुई। सभी पर्यायों को अपना रुप मानता रहा, तथा राग-द्वेष - मोह - क्रोध- कामादि भाव जो कर्मकृत विकार थे, उनको अपने रुप अनुभव करके विपरीत भाव करते हुए उनसे घोर कर्म बंध ही किया। अब मैं आकिंचन्य भावना में विघ्नों का नाश करनेवाले पाँचों परम गुरुओं की शरण से निर्विध्न आकिंचनपना ही चाहता हूँ, तीनलोंक में किसी अन्य वस्तु को नहीं चाहता हूँ। यह आकिंचनपना ही संसार समुद्र से तारने का जहाज हो जाये । परिग्रह को महादुःखरुप तथा बंध का कारण जानकर छोड़ना वह आकिंचन्य धर्म है। जिसे आकिंचनपना होता है उसे परिग्रह में वांछा नहीं रह जाती है, आत्मध्यान में लीनता होती है, देहादि में तथा बाह्य वेष में अपनापन नहीं रह जाता है, तथा अपना स्वरुप जो रत्नत्रय है उसी में प्रवृत्ति होती है । इन्द्रियों के विषयों में दौड़ता मन रुक जाता है, देह से स्नेह छूट जाता है। सांसारिक देवों का सुख, इन्द्र अहमिन्द्र चक्रवर्ती का सुख भी दुःख दिखता है; इनकी वांछा कैसे करेगा ? परिग्रह, रत्न, स्वर्ण, राज्य, ऐश्वर्य, स्त्री पुत्रादि को उसी प्रकार छोड़ देता है, जिस प्रकार ममता रहित होकर जीर्ण तृण छोड़ने में विचार नहीं करना पड़ता है। आकिंचन्य तो परम वीतरागपना है, जिनका संसार का किनारा आ गया है, उसकी ही यह आकिंचन्यधर्म होता है । जिनके आकिंचनपना होता है उनके परमार्थ जो शुद्ध आत्मा उसका विचार करने की शक्ति प्रकट होती ही है, पंच परमेष्ठी में भक्ति होती ही है, दुष्ट विकल्पों का नाश होता ही है, इष्ट- अनिष्ट भोजन में रागद्वेष नष्ट हो ही जाता है, केवल पेटरुप खाड़े को भरना है, अन्य रस- नीरस भोजन का विचार चला जाता है । समस्त धर्मों में प्रधान धर्म आकिंचन्य ही मोक्ष का निकट समागम करानेवाला है। अनादिकाल से जितने सिद्ध हुये हैं वे आकिंचन्य धर्म से ही हुए हैं, तथा आगे भी जो तीर्थंकरादि सिद्ध होंगे वे आकिंचन्य धर्म ही से होंगे । यद्यपि आकिंचन्य धर्म प्रधानरुप से साधुओं के ही होता है, तथापि Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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