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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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छल, कपट रहित है। जिस प्रकार टेढ़े म्यान में सीधी तलवार प्रवेश नहीं करती है, उसी प्रकार कपट से वक्र परिणामी के हृदय में जिनेन्द्र का आर्जवरूप सरल धर्म प्रवेश नहीं करता है।
कपटी के दोनों लोक नष्ट हो जाते हैं । यदि यश चाहते हो, धर्म चाहते हो, प्रतीति चाहते हो तो मायाचार का त्याग करके आर्जव धर्म धारण करो । कपट रहित की बैरी भी प्रशंसा करते है। कपट रहित सरलचित वाले ने यदि कोई अपराध भी किया हो तो भी वह दण्ड देने योग्य नहीं है। आर्जव धर्म का धारक तो परमात्मा के अनुभव करने का संकल्प करता है, कषाय जीतने का, संतोष धारने का संकल्प करता है, जगत के छलों का दूर से ही परिहार करता है, आत्मा को असहाय चैतन्यमात्र जानता है।
जो धन, सम्पदा, कुटुम्ब आदि को अपनाता है वही कपट छल ठगाई करता है। जो आत्मा को संसार परिभ्रमण से छुड़ाकर पर द्रव्यों से अपने को भिन्न असहाय जानता है वह धन जीवन के लिये कपट नहीं करता है । अतः यदि अपने आत्मा को संसार परिभ्रमण से छुड़ाना चाहते हो तो मायाचार का परिहार करके आर्जव धर्म धारण करो। इस प्रकार आर्जव धर्म का वर्णन किया | ३ |
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उत्तम सत्य धर्म
अब उत्तम सत्य धर्म के स्वरूप का वर्णन करते हैं । जो सत्य वचन है वह ही धर्म है। यह सत्य वचन दया, धर्म का मूल कारण है, अनेक दोषों का निराकरण करनेवाला है, इस भव में तथा परभव में सुख का करनेवाला है, सभी के विश्वास करने का कारण है । समस्त धर्मों के मध्य में सत्य वचन प्रधान है। सत्य है वह संसार समुद्र से पार उतारने को जहाज है । समस्त विधानों में सत्य बड़ा विधान है। समस्त सुख का कारण सत्य ही है। सत्य से ही मनुष्य जन्म को शोभा है। सत्य से ही समस्त पुण्य कर्म उज्ज्वल होते हैं। जो पुण्य के ऊँचे कार्य करते हैं उनकी उज्ज्वलता सत्य के बिना नहीं होती है। सत्य से ही सभी गुणों का समूह महिमा को प्राप्त होता है।
सत्य प्रभाव से देव भी सेवा करते हैं । सत्य सहित ही अणुव्रत - महाव्रत होते हैं । सत्य के बिना समस्त व्रत, संयम नष्ट हो जाते हैं। सत्य से सभी आपत्तियों का नाश होता है। अतः जो भी वचन बोलो वह अपने और पर के हितरूप कहो, प्रामाणिक कहो, किसी को दुःख उत्पन्न करनेवाला वचन नहीं कहो। दूसरे जीवों को बाधा पहुँचानेवाला सत्य भी नहीं कहो। गर्व रहित होकर कहो । परमात्मा का अस्तित्व बतानेवाला वचन कहो । नास्तिकों के वचन, पाप-पुण्य का अभाव, स्वर्ग - नरक का अभाव बतानेवाले वचन नहीं कहो।
यहाँ परमागम का ऐसा उपदेश जानना : यह जीव अनन्तानन्त काल तो निगोद में ही रहा है। वहाँ पर वचनरूप वर्गणा ही ग्रहण नहीं की । पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय इनमें भी अनन्तकाल रहा, वहाँ तो जिह्वा इद्रिय ही नहीं पाई, बोलने की शक्ति ही नहीं पाई। जब विकल चतुष्क में उत्पन्न हुआ, पंचेन्द्रिय तिर्यंच में उत्पन्न हुआ वहाँ जिह्वा इन्द्रिय पाई तो भी अक्षर स्वरूप शब्दों का उच्चारण करने की सामर्थ्य नहीं मिली।
१ यहाँ पर पं. जी ने सत्य के वर्णन में सत्यवचन का वर्णन किया है । - संपादक
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