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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार] [२९७ मूर्यों में तथा जातिकुलादि हीनों में भी यथा योग्य प्रियवचन, आदर, सत्कार, स्थान दान आदि देने से कभी नहीं चूकते हैं, प्रियवचन ही कहते हैं। उत्तमपुरुष उद्धतता के वस्त्र आभरण नहीं पहनते हैं; उद्धतपने का, पर के अपमान का कारण लेन-देन विवाहादि व्यवहार कार्य नहीं करते हैं; उद्धत होकर अभिमान से चलना , बैठना, झांकना, बोलना दूर से ही छोड़ देते हैं उनको लोक में पूज्य मार्दवगुण होता है। धन पाना, रूप पाना, ज्ञान पाना, विद्या-कला-चतुराई पाना, ऐश्वर्य पाना, बल पाना, जातिकुलादि उत्तम गुण, जगत मान्यता इत्यादि पाना उनका ही सफल है, जो उद्धततारहित, अभिमानरहित, नम्रता सहित, विनय सहित प्रवर्तते हैं। जो अपने मन में अपने को सबसे छोटा मानते हुए कर्म के परवश जानते हैं, वे कैसे गर्व कर सकते हैं ? नहीं करते हैं। हे भव्यजनों! सम्यग्दर्शन का अंग इस मार्दव अंग को जानकर चित्त में ध्यान करो, स्तवन करो। इस प्रकार मार्दवधर्म का वर्णन किया ।२।। उत्तम आर्जव धर्म अब उत्तम आर्जवधर्म के स्वरूप का वर्णन करते हैं। धर्म का श्रेष्ठ लक्षण आर्जव है। आर्जव का अर्थ सरलता है। मन-वचन-काय की कुटिलता का अभाव वह आर्जव है। आर्जव धर्म पाप का खण्डन करनेवाला है तथा सुख उत्पन्न करनेवाला है। अतः कुटिलता छोड़कर कर्म का क्षय करनेवाला आर्जव धर्म धारण करो। कुटिलता अशुभ कर्म का बंध करनेवाली है, जगत में अतिनिंद्य है। आत्मा का हित चाहनेवालों को आर्जवधर्म का अवलंबन लेना उचित है। जैसा मन में विचार करते हैं, वैसा ही शब्दों द्वारा अन्य को कहना तथा वैसा ही बाह्य में शरीर द्वारा प्रवर्तन करना, उसे सख का संचय करनेवाला आर्जवधर्म कहते हैं। मायाचाररूप शल्य मन से निकालकर उज्ज्वल पवित्र आर्जवधर्म का विचार करो। मायाचारी का व्रत, तप, संयम सभी निरर्थक है। आर्जवधर्म निर्वाण के मार्ग का सहाई है। जहाँ कुटिलवचन नहीं बोले वहाँ आर्जवधर्म होता है। यह आर्जवधर्म सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र का अखण्ड स्वरूप है तथा अतींद्रिय सुख का पिटारा है। आर्जवधर्म के प्रभाव से अतीन्द्रिय अविनाशी सुख प्राप्त होता है। संसाररूप समुद्र से तिरने के लिये जहाजरूप आर्जवधर्म ही है। जिस समय मायाचार जान लिया जाता है उसी समय प्रीति भंग हो जाती है, जैसे कांजी डालने से दूध फट जाता है। मायाचारी अपना कपट बहुत छिपाता है, किन्तु वह प्रकट हुए बिना नहीं रहता है। दूसरे जीवों की चुगली करना व दोष बतलाना, वे स्वयं ही प्रकट हो जाते हैं। मायाचार करना तो अपनी प्रतीति का बिगाडना है। मायाचारी के समस्त हितैषी बिना किये ही बैरी हो जाते हैं। जो व्रती हो, त्यागी हो, तपस्वी हो किन्तु जिसकी कपट एक बार भी प्रकट हो जाय तो सभी उसे अधर्मी मानकर कोई भी उसकी प्रतीति नहीं करता है। कपटी की तो माता भी प्रतीति नहीं करती है। कपटी तो मित्र द्रोही, स्वामी द्रोही, धर्म द्रोही, कृतघ्नी है तथा यह जिनेन्द्र का धर्म तो Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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