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होय है। इत्यादिक हजारां गुणनिकू उपजावनेवाली भावना जानि भावनाकू एक क्षण हू मति छांडो।"
२२५ पृष्ठों में इस अधिकार का विस्तृत विवेचन करने के उपरान्त भी उनका मन भरा नहीं। यद्यपि और बहुत कुछ लिखने की भावना उनके हृदय में थी, तथापि स्वास्थ्य की शिथिलता के कारण उन्हें अपनी भावना को बलात् संयमित करना पड़ा। जैसा कि इसी अधिकार के अन्त में वे स्वयं लिखते हैं - ___ “अब इहां अनेकान्त भावना अर समयसारादि भावना वर्णन करी चाहिए, परन्तु आयुकाय का अब शिथिपनातें ठिकाना नाहीं। तातें सूत्रकार का कह्या कथन कू समेटना उचित विचारि मूलग्रन्थ का कथन लिखिये हैं।”
उक्त कथन से स्पष्ट प्रतीत होता है कि वे ग्रन्थरचना के समय में ही स्वास्थ्य की शिथिलता अनुभव करने लगे थे। समताभाव के धनी पंडित श्री सदासुखदासजी की यह वैराग्यरस से सराबोर वचनिका जीवन-शोधन के लिये परमामृत है।
उनके हृदय में समयसार की कितनी महिमा थी -यह बात उनके निम्नलिखित प्रशस्ति वाक्य में प्रकट है :
“ समयसार गुन कहनकू, शक्त न सुरगुरु होय ।
ताको शरण सदा रहो, रागादिक मल धोय ।।१९।।" __ यदि समयसारभावना भी लिखी जाती तो उसमें मुमुक्षु समाज को नया प्रमेय मिल सकता था, परन्तु हमारे दुर्भाग्य से उनकी यह भावना अपूर्ण ही रह गई है।
यह उनके जीवन की अन्तिम रचना है। ६८ वर्ष की उम्र में यह कृति पूर्ण हुई है। इसमें उनके जीवन का सार आया है। अत्यन्त विगलित हृदय से उन्होंने इस ग्रन्थ की टीका की है। यह टीका वि. सं. १८२० में पूर्ण हुई, उसके बाद वे अधिक से अधिक दो वर्ष तक ही जीवित रहे। अन्तिम प्रशस्ति के कुछ अत्यधिक महत्वपूर्ण छन्द दृष्टव्य हैं -
हे जिनवानी भगवती, भुक्ति - मुक्ति दातार । तेरे सेवनतै रहै, सुखमय नित अविकार ।।२०।। दुख दरिद्र जाण्यो नहीं, चाह न रही लगार । उज्ज्वल यशमय विसतरयों, यो तेरो उपकार ।।२१।। अड़सठ वरस जु आयु के, बीते तुझ आधार । शेष आयु तव शरणर्ते, जाहु यही मम सार ।।२२।। जितनैं भव तितनै रहों, जैन धर्म अमलान ।
१. श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार २. श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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