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जिनवर धर्म बिना जु मम, अन्य नहीं कल्यान ।।२३।। जिनवाणी सूं वीनती, मरण वेदना रोक । आराधन के शरणतै, देहु मुझे परलोक ।।२४।। बाल मरण अज्ञानतें, करे जु अपरंपार । अब आराधन शरणतै, मरण होहु अविकार ।।२५।। हरि अनीति कुमरण हरो, करो जु ज्ञान अखण्ड ।
मोकू नित भूषित करो, शास्त्र जु रत्नकरण्ड ।।२६ ।। उनके जीवन में कोई लौकिक अभाव नहीं रहा और उनका सम्पूर्ण जीवन साहित्य आराधन, चिन्तन, मनन में ही बीता। अन्त तक भी वे इसी में लीन रहे।
उनकी इस मंगलकृति से मुमुक्षु समाज को लाभ उठाना चाहिये। ऐसी भावना के साथ विराम लेता हूँ।
१५ मार्च १९९४ टोडरमल स्मारक भवन , जयपुर
डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल
पर स्वभाव , पूरव उदय , निहचै उद्यम काल। पक्षपात मिथ्यात पथ, सरवंगी शिव चाल।।
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