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व पाँचवें अधिकार में चारित्र का वर्णन किया गया है। उसमें आचार्य समन्तभद्र सम्यग्दर्शनज्ञान एवं अंतरंगचारित्र पूर्वक धारण किये गये व्रतों को ही चारित्र कहते हैं । वे लिखते हैं “ रागद्वेषनिवृत्तेः हिंसादिनिवर्तना कृता भवति । अनपेक्षितार्थवृत्तिः कः पुरुषः सेवते नृपतीन् ।
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राग-द्वेष का अभाव हो जाने पर हिंसादि पापों की निवृत्ति हो ही जाती है; क्योंकि जिसे धनादिक की अपेक्षा नहीं है, वह पुरुष राजा की सेवा क्यों करेगा ?
पंडित सदासुखदासजी की यह वचनिका मात्र सामान्यार्थ नहीं है। इसमें यथास्थान आवश्यक विषयों का विस्तार भी किया गया है, सम्बन्धित विषय अन्य ग्रन्थों से भी उद्धृत किये गये हैं, जैसे हिंसा के प्रकरण में बहुत से छन्द आचार्य अमृतचन्द्र के पुरुषार्थ सिद्धयुपाय से उद्धृत किये गये हैं क्योंकि अहिंसा - हिंसा का जैसा उत्कृष्ट विवेचन पुरुषार्थ सिद्धयुपाय में प्राप्त होता है, वैसा अन्य श्रावकाचारों में नहीं।
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पण्डित श्री सदासुखदासजी की भाषा वचनिका की सबसे बड़ी विशेषता षष्ठ ‘भावना महाधिकार' की स्वतंत्र रचना है। पंचाणुव्रतों की पाँच-पाँच भावनाएँ, ग्रन्थान्तरों में पायी जाती हैं। विस्तृत वचनिका होने से उनका विवेचन तो इसमें स्वाभाविक ही होता; किन्तु इस अधिकार में अन्य भावनाओं का भी समावेश किया गया है, जिनकी जानकारी वे मुमुक्षु समाज को कराना चाहते थे। जैसे सोलहकारण भावना, बारह भावना, मैत्री आदि चार भावना, दशलक्षण धर्म, चार ध्यान, बारह तप, बहिरात्मा आदि आत्मा के तीन भेद आदि का विस्तृत विवेचन उल्लेखनीय विशेषता है।
इस विवेचन में उनकी मौलिक प्रतिभा के दर्शन होते हैं। इसमें उनका सदाचारी व उपादेशक विद्वान् का व्यक्तित्व उभरकर सामने आता है । लगता है जैसे कि वे स्वयं विशाल सभा को सम्बोधित कर रहे हों। वे प्रतिपादित विषय को स्पष्ट करने के साथ-साथ हृदय को हिला देनेवाली प्रेरणा भी देते जाते हैं, जो अल्पशिक्षित व्यापारी पुरुषवर्ग एवं भावुक भद्र महिलावर्ग के हृदय तक पहुँचकर उन्हें उद्वेलित कर देती है; जीवन को सार्थक कर लेने के लिये प्रेरित करती है। यही कारण है कि उनकी यह सरल-सरस कृति आज जन-जन की वस्तु बनी हुई है।
यद्यपि यह महाधिकार पण्डित सदासुखदासजी की मौलिक रचना है, तथापि इसे उन्होंने अपनी कल्पना से नहीं, अपितु परमागम के आधार पर बनाया है। अधिकार का आरम्भ करते हुये वे स्वयं इस बात का उल्लेख करते हैं।
१. श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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'अब श्री परमगुरुनि का प्रसाद करि परमागम की आज्ञाप्रमाण भावना नामा महाधिकार लिखिये हैं। समस्त धर्म का मूल भावना है। भावनातें ही परिणामनि की उज्ज्वलता होय है ! भावनातैं मिथ्यादर्शन का अभाव होय है । भावनातैं व्रतनि में छढ़ परिणाम होय हैं। भावनातैं वीतरागता की वृद्धि होय है। भावनातें अशुभ ध्यान का अभाव होय शुभ ध्यान की वृद्धि होय है। भावनातैं आत्मा का अनुभव
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