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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates 27 खडग अर कूकरा वाहनकरि सहित स्थापन करि तैल गुड़का भक्षणतै क्षेत्रपाल प्रसन्न होय है-ऐसे लोकनि] बहकाय पूर्जे हैं। अर इनका पहिली दर्शन, पूजन, स्तवन करें है; सो सब मिथ्यादर्शन अर कुज्ञान का प्रभाव जानहु।” ____ “बहुरि पार्श्व जिनेन्द्र की प्रतिमा के मस्तक ऊपरि फण बिना बनावें ही नाही, अर भगवान पार्श्व अरिहन्त के समोशरण में धरणेन्द्र का फण मस्तक ऊपर कैसे संभवै है ? धरणेन्द्र ने तो भगवान के तप के अवसर में फणामण्डप किया था, सो फेर फणामण्डप का प्रयोजन नाहीं। अर पार्श्व जिनेन्द्र अरिहन्त भये, अर इन्द्र की आज्ञातै कुबेर समोशरण रच्यों, तहाँ भगवान फणसहित नाहीं विराजे हुते। चार निकाय के देव, मनुष्य, तिर्यञ्च धर्मश्रवण-स्तवन-वन्दना करते ही तिष्ठें, यातें स्थापना विर्षे अर्हन्त की प्रतिबिम्बनि के फण कैसे संभवै ? वीतरागमुद्रा तो ऐसी सम्भवै नाहीं, परन्तु काल के प्रभावतें धरणेन्द्र की प्रभावना प्रकट करने कू लोक विपरीत कल्पना करने लगि गये, सो कौन दूर करि सकै? जैसे पाषाणमय भगवान का प्रतिबिम्बमहा अंगोपांग सुन्दरता के अर्थि कर्णनिकू मस्तक की रक्षा के अर्थि लम्बा करि स्कन्धसौं जोड़ देहैं, सो देखादेखी चल गई। तैसें ही अर्हन्त प्रतिबिम्बनि के ऊपरि फण का आकार करते, लोकनिकू देखि, तत्त्व डूं समझे बिना फण करने की प्रवृत्ति चल गई। सो फण के कर देने से प्रतिमा तो अपूज्य होय नाहीं, क्योंकि चार प्रकार के समस्त ही देव सर्व तरफतें सदैव ही भगवान का सेवन करें हैं। अर जो फणामण्डप करने से ही धरणेन्द्रकू पूज्य माने, सो देवमूढ़ता है।"२ इसी प्रकार गुरुमूढ़ता के सन्दर्भ में भी वे सचेत करते हुए लिखते हैं - “जिनेन्द्र धर्म का श्रद्धान-ज्ञानकरि रहित होय जो नाना प्रकार का भेष धारण करिकै आपकू ऊँचा मानि जगत के जीवनितें पूजा, वन्दना, सत्कार चाहता जो परिग्रह राखें हैं अर अनेक आरम्भ करें हैं, हिंसा के कार्यनि में प्रवर्तन करें हैं, इन्द्रियनि के विषयनि का रागी संसारी असंयमी अज्ञानीनितें गोष्ठी करता अभिमानी होय, आपकू आचार्य, पूज्य , धर्मात्मा कहावता, रागी-द्वेषी हुआ प्रवतें हैं। अर युद्धशास्त्र , श्रृंगार के शास्त्र , हिंसा के कारण आरम्भ के शास्त्र, राग के वधावनेवाले शास्त्रनिकूँ आप महन्त भये उपदेश करें हैं, ते पाखण्डी हैं। जिनके नानाप्रकार के रसनि करि सहित भोजन में तत्परता, याही ते कामादिक की कथा में लीन होय रहे अर परिग्रह के बधावने के अर्थि दुर्व्यानी हो रहे हैं, बहुरि जे मुनि, साधु, आचार्य, महन्त पूज्यनाम कहावै, अर लोकनि तहे नमस्कार कराया चाहैं, अर विकथा करने में, विषयनि में, मन्त्र, यन्त्र, तन्त्र, जप, होम, मारण, उच्चाटन, वशीकरणादिक निंद्य आचरण करें हैं, ते पाखण्डी हैं। तिन पाखण्डीनि का वचनकू प्रमाण करना, अर सत्कार करना, धर्म कार्य में प्रधान मानना, सो पाखण्ड मूढ़ता है। प्रथम व दूसरे अधिकार में सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान का निरूपण करने के पश्चात् तीसरे, चौथे १. श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार २. श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार ३. श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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