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अर जैन शासन में हू ऐसी कई कथा हैं, जो शीलवान तथा ध्यानी तपस्वीनि के धर्म के प्रसादतैं देवनि के आसन कम्पायमान भये, अर देव जाय उपसर्ग टाले। अर नाना रत्ननि करि पूजा करी-ऐसी कथा तो शासन में बहुत हैं । अर ऐसी तो कहूं कथा भी नहीं, जो धर्मात्मा पुरुष देवनिकूं पूजै। अर पद्मावती, चक्रेश्वरी की भी कई कथा हैं, जो शीलवन्ती व्रतवंतिनि की देव - देवियों ने पूजा करी; अर शीलवन्ती, व्रतवन्ती तो जाय कोऊ देव-देवी की पूजाकरी नाहीं लिखी है।" १
तथा कार्तिकेय स्वामी कहैं हैं
णय कोवि देदि लच्छी ण कोवि जीवस्स कुणई उवयारं । उवयारं अवयारं कम्मं पि सुहासुहं कुणदि ।।३१९ ।।
भत्तीए पुज्जमाणो विंतरदेवो वि देदि जदि लच्छी । तो किं धम्मं कीरदि एवं चिन्तेहि सद्दिट्ठी ।। ३२० ।
अर्थ :- “ इस जीवकूं कोऊ लक्ष्मी नाहीं देवै है, अर जीव का कोऊ उपकार - अपकार हू नाहीं करै है। जो जगत में उपकार - अपकार करता देखिये है, सो अपना किया शुभ-अशुभ कर्म करि करै है । बहुरि जो भक्ति करि पूजै व्यंतरदेव ही लक्ष्मी देवें तो दान, पूजा, शील, संयम, ध्यान, अध्ययन, तपरूप समस्त धर्म काहेकूँ करिये ? बहुरि जो भक्ति करि पूजे - वन्दे कुदेव ही संसार कार्य सिद्ध करेंगे तो कर्म कछु बात ही नाहीं ठहरें ? व्यंतर ही समस्त सुख का दायक रहै । धर्म का आचरण निष्फल रहा।
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“बहुरि जो मन्त्रसाधन, विद्या-आराधन, देव-आराधन हैं ते समस्त पाप-पुण्य के अनुकूल फलैं हैं। तातैं जो सुखका अर्थी हैं, ते दया, क्षमा, संतोष, निर्वांछकता, मन्दकषायता, वीतरागताकरि एक धर्म ही का आराधन करो, अन्यप्रकार वांछाकरि पापाबन्ध मत करो ।
अर जो देवनि का समागम में ही प्रीति करो हो तो उत्तम सम्यग्दृष्टि सौधर्म इन्द्र तथा शची इन्द्राणी तथा लौकान्तिक देवनि का ही संगम में बुद्धि करो। अन्य अधम देवनि का सेवन करि कहा साध्य है ?
बहुरि मिथ्याबुद्धि करि मन्दिरनि में क्षेत्रपाल स्थापन करें हैं और नित्य पूजन करें हैं। तदि प्रथम तो क्षेत्रपाल का पूजन करें है अर क्षेत्रपाल का पूजन किया पाछें जिनेन्द्र का पूजन करें हैं। अर ऐसा कहैं हैं - जैसे पहली द्वारपाल का सम्मान करिके पीछें राजा का सन्मान करना । द्वारपाल बिना राजा सौं कौन मिलावे ? तैसैं क्षेत्रपाल बिना भगवान का मिलाप कौन करावे ?
तिन मूढ़नि के ऐसा विचार नाहीं, जो भगवान तो मोक्ष में हैं। भगवान परमात्मा का स्वरूपकूँ यो मिथ्यादृष्टि अज्ञानी कैसे जानेगा अर कैसे मिलावैगा ? अस विध्नकूं कैसे विनाशैगा ? आपका विध्न ही नाश करने कूं समर्थ नाहीं । सो विचाररहित मिथ्यारहित लोक क्षेत्रपाल का महाविपरीतरूप बनाय वीतराग के मन्दिर में प्रथम स्थापन करें हैं, जाका हस्त में मनुष्य का कट्या मूंड अर गदा,
१. श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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