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" श्रद्धानं परमार्थामाप्तागमतपोभृताम् ।
त्रिमूढापोढमष्टाङ्गं सम्यग्दर्शनमस्मयम् ।। तीनमूढ़ता रहित सच्चे देव-शास्त्र-गुरू का श्रद्धान ही सम्यग्दर्शन है। वह सम्यग्दर्शन आठ मदों से रहित और आठ अंगों से सहित होता है।"
उक्त परिभाषाओं में देव-शास्त्र-गुरू के तीन मूढ़ता रहित श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा गया है। अतः सच्चे देव-शास्त्र-गरू और तीन मढताओं का स्वरूप जानना आवश्यक है. अन्यथा सम्यग्दर्शन का स्वरूप भी स्पष्ट न होगा। इसी प्रकार सम्यग्दर्शन को आठ मद रहित एवं आठ अंग सहित कहा गया है, इस कारण आठ अंगों और आठ मदों के स्वरूप का स्पष्टीकरण भी आवश्यक था। अत: इसके प्रथम अध्याय में इनका स्वरूप बताया गया।
यद्यपि देव-शास्त्र-गुरु की श्रद्धा में तत्वार्थों की श्रद्धा एवं आत्मानुभव समाहित ही है; तथापि यहाँ आचरण की प्रधानता होने से, उन्हे मुख्य नहीं बनाया गया है।
देवादिक के स्वरूप के सम्यक् परिज्ञान के अभाव में कुदेवादिक की आराधना द्वारा गृहीत मिथ्यात्व का पोषण होना स्वाभाविक है। सामान्यजनों को कुदेवादिक के चक्कर से बचाने के लिये यह आवश्यक है कि सच्चे देव-शास्त्र-गुरू के स्वरूप पर विस्तार से प्रकाश डाला जाये। अतः इसके हिन्दी वचनिकाकार पण्डित सदासुखदासजी ने इनके स्वरूप पर विस्तार से प्रकाश डाला है, जो कि मूलतः पठनीय है।
दिगम्बर जिनधर्म जैसे वीतरागी धर्म में भी रागी-द्वेष देवी-देवताओं की पूजा-प्रतिष्ठा आरम्भ हो गई है, उसे देवमूढ़ता बताते हुए वे लिखते हैं -
“ तथा व्यन्तर क्षेत्रपालादिकनिकू अपना सहायी माने हैं, सो मिथ्यात्व का उदय का प्रभाव है। बहुरि केतेक कहैं हैं – जो चक्रेश्वरी, पद्मावती देवी – ये शस्त्र धारण किये जिन शासन की रक्षक हैं तथा सेवकनि की रक्षा करने वाली एक-एक तीर्थंकरनि की एक-एक देवी हैं, एक-एक यक्ष हैं – इनका आराधन करने, पूजनेतें धर्म की रक्षा होय है; ये धर्मात्मा की रक्षा करें हैं, तातें इन देवीनि का और यक्षनि का स्तवन करना, पूजन करना योग्य है। देवी समस्त कार्य के साधनेवाली तीर्थंकरनि की भक्त हैं। इस बिना धर्म की रक्षा कौन करे ? याहीते मन्दिरनि के मध्य पद्मावती का रूप, जाके चार भुजा तथा बत्तीस भुजा अर नाना आयुधनिकरि युक्त, अर तिनके मस्तक ऊपर पार्श्वनाथ स्वामी का प्रतिबिम्ब, अर ऊपर अनेक फणनि का धारक सर्प का रूपकरि बहुत अनुरागकरि पूजें है; सो सब परमागमतें जानि निर्णय करो। मूढलोकनि का बहाया बहिबो (बहकावे में आना) योग्य नाहीं।"२
___ “प्रथम तो भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी – इन तीन प्रकार के देवनि में मिथ्यादृष्टि ही उपजै हैं। सम्यग्दृष्टि का भवनत्रिकदेवनि में उत्पाद ही नाहीं। अर स्त्रीपना पावे ही नाहीं। सो पद्मावती, चक्रेश्वरी तो भवनवासिनी अर स्त्रीपर्याय में अर क्षेत्रपालादिक यक्ष – ये व्यन्तर, इनमें सम्यग्दृष्टि का उत्पाद कैसे होय ? इनमे तो नियमतें मिथ्यादृष्टि ही उपजै हैं - ऐसा हजारौबार परमागम कहै है।
१. श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार, श्लोक ४ २. श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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