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का महत्वपूर्ण स्थान है; क्योंकि वह मोक्षमार्ग का कर्णधार है। यही कारण है कि – मोक्षमार्ग में सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की अपेक्षा सम्यग्दर्शन की उपासना प्रधानता से की जाती है।
__ “जिस प्रकार बीज के बिना वृक्ष की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि एवं फलागम असम्भव है, उसी प्रकार सम्यग्दर्शन के बिना सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की उत्पत्ति, स्थिति वृद्धि एवं फलागम सम्भव नहीं है।"
धर्म का आरम्भ ही सम्यग्दर्शन से होता है। यह बात सम्पूर्ण जिनागम में स्थान-स्थान पर अत्यन्त स्पष्टरूप से कही गई है। कविवर पंडित दौलतरामजी की निम्नलिखित पंक्तियाँ भी स्पष्ट घोषणा करती हैं कि -
" तीनलोक तिहुँकाल माँहि नहिं दर्शन सो सुखकारी । सकल धर्म को मूल यही, इस बिन करनी दुखकारी ।।१६।। मोक्षमहल की परथम सीढ़ी, या बिन ज्ञानचरित्रा। सम्यकता न लहै सो दर्शन, धारो भव्य पवित्रा ।। "दौल" समझ सुन चेत सयाने, काल वृथा मत खोवे ।
यह नरभव फिर मिलन कठिन है, जो सम्यक् नहीं होवे ।।१७।। तीनलोक और तीनकाल में सम्यग्दर्शन के समान सुखकारी और कोई नहीं है। यह सम्यग्दर्शन सब धर्मो का मूल है। इसके बिना सम्पूर्ण क्रियाकाण्ड दुःख का कारण ही है।
यह सम्यग्दर्शन मोक्षरूपी महल की प्रथम सीढ़ी है। इसके बिना ज्ञान और चारित्र, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र नहीं बन सकते। अतः हे भव्यजीवो! सर्वप्रथम इस पवित्र सम्यग्दर्शन को धारण करो।
कविवर दौलतरामजी प्रेरणा देते हुए कहते हैं कि यदि तुम सयाने (चतुर) हो तो समय व्यर्थ मत गमाओ, हमारी यह बात ध्यान से सुनो, समझो और चेतो। यदि इस मनुष्यभव में सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नहीं हो पाई तो फिर यह मनुष्यभव मिलना अत्यन्त कठिन है।" सर्वश्रेष्ठ दिगम्बराचार्य कुन्दकुन्द तो यहाँ तक कहते हैं कि -
“दसणभट्ठा भट्टा दंसण भट्टस्स णत्थि णिव्वाणं।"२ । जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हैं, वे वस्तुतः भ्रष्ट ही हैं, क्योंकि सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट लोगों को मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती। प्रस्तुत ग्रन्थ में सम्यग्दर्शन की परिभाषा भी चरणानुयोग (आचरण) की दृष्टि से की गई है, जो कि इस प्रकार है -
१. छहढाला, तृतीय ढाल, छन्द १६, १७ २. अष्टपाहुड़, दंसणपाहुड़
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