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प्रस्तावना चरणानुयोग में धर्म का वर्गीकरण श्रावकधर्म और मुनिधर्म के रूप में किया गया है। श्रावक धर्म का निरूपण करनेवाले अनेक ग्रंथों में प्रस्तुत ग्रन्थ रत्नकरण्डश्रावकाचार सर्वाधिक प्राचीन एवं सर्वमान्य ग्रंथराज है।
श्रावक धर्म का निरूपण करनेवाले ग्रंथों के नाम प्रायः श्रावकाचार नाम से ही पाये जाते हैं जैसे-रत्नकरण्डश्रावकाचार, अमितगतिश्रावकाचार, वसुनन्दिश्रावकाचार, धर्मसंग्रहश्रावकाचार, प्रश्नोत्तरश्रावकाचार आदि। इसके अपवाद भी हैं, जैसे – पुरूषार्थ सिद्धयुपाय, सागारधर्मामृत आदि।
श्रावकाचार में 'आचार' शब्द का प्रयोग यद्यपि धर्म के अर्थ में ही होता है, तथापि जगतजन उसके व्यापक अर्थ को न समझ पाने के कारण मात्र क्रियाकाण्डरूप बाह्यचार ही ग्रहण करते हैं।
श्रावकधर्म का कथन करनेवाले प्रस्तुत ग्रन्थ में आचार्य समन्तभद्र धर्म की परिभाषा इस प्रकार देते हैं
“सददृष्टि-ज्ञान-वृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः।' धर्म के ईश्वर तीर्थंकर भगवन्तों ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को धर्म कहा है।"
धर्म की उपर्युक्त परिभाषा में मात्र आचरण को ही नहीं, अपितु श्रद्धा, ज्ञान चारित्र की निर्मल परिणति को धर्म कहा गया है। अतः श्रावक का बाह्याचार मात्र ही श्रावकधर्म नहीं है, अपितु श्रावकोचित रत्नत्रयरूप निर्मल परिणति ही वस्तुतः श्रावकधर्म है।
यही कारण है कि प्रस्तुत ग्रन्थ रत्नकरण्डश्रावकाचार में सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन का विस्तार से सांगोपांग विवेचन किया गया है।
आज के श्रावक या तो श्रावकधर्म से अपरिचित ही हैं। या फिर बाह्य क्रियाकाण्ड में ही उलझे रहते हैं। 'सम्यग्दर्शन श्रावकधर्म का मूल है' - इस बात की ओर उनका ध्यान नहीं जाता। सम्यग्दर्शन के विषयभूत शुद्धात्मा की चर्चा तक उन्हें नहीं सुहाती। उन्हें आचार्य समन्तभद्र के निम्न कथन पर ध्यान देना चाहिये -
“दर्शनंज्ञानचारित्रात्साधिमानमुपाश्नुते । दर्शनं कर्णधारं तन्मोक्षमार्ग प्रचक्षते ।। विद्यावृत्तस्य सम्भूतिः स्थितिः वृद्धिफलोदयाः ।
न सन्त्यसति सम्यक्त्वे बीजाभावे तरोरिव ।। जिस प्रकार नाव में नाविक (खेवटिया) का महत्वपूर्ण स्थान है, उसीप्रकार मोक्षमार्ग में सम्यग्दर्शन
रत्नकरण्ड श्रावकाचार ३ २. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, श्लोक ३१, ३२
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