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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार ] [२९१ कहता है, उसे सुनकर तेरा दुःखी होना बड़ा अनर्थ है। ये दुष्टजन जो दुर्वचन कहते हैं वह इनका अपराध नही है, हमारे द्वारा पूर्व जन्मों में बांधे गये कर्मों का उदय है; उसके द्वारा दुर्वचन कहने से हमारे उन कर्मों की निर्जरा होती है; यह हमें बड़ा लाभ है। इनका यह भी उपकार है कि ये दुर्वचन कहनेवाले हमारे लिये दुर्वचन कहकर अपने पुण्य के समूह का तो नाश करते हैं तथा मेरे पापों को दूर करके उनकी निर्जरा करते हैं। ऐसे उपकारी पर यदि मैं क्रोध करूँ तो मेरे समान अधम कोई नहीं है। - इसने मुझे दुर्वचन ही तो कहे हैं, मारा पीटा तो नहीं है। क्रोधी तो मारने भी लग जाता है, अपने पुत्र, पुत्री, स्त्री, बालक को भी मारता हैं, किन्तु इसने मुझे मारा तो नहीं है, यही लाभ है। यदि दुष्ट आपको मारे तो ऐसा विचार करना चाहिये - इसने मुझे पीटा ही तो है, प्राणरहित तो नहीं किया है। दुष्ट तो अपना मरण नहीं गिन करके भी अन्य को मार डालता है, किन्तु इसने मुझे प्राण रहित तो नहीं किया है, यही लाभ है। यदि प्राण रहित कर देता है तो ऐसा विचार करना चाहिये - एक बार तो मरना ही था, अच्छा ही हुआ, कर्म का ऋण चुका। हम यहाँ पर ही कर्म के ऋण से रहित हो गये, हमारा धर्म तो नष्ट नहीं हुआ है, यही लाभ है, प्राण धारण करना तो धर्म से ही सफल है। ये द्रव्य प्राण तो पुद्गलमय हैं। मेरे ज्ञान, दर्शन, क्षमादि धर्म ये भावप्राण हैं, इनका घात मैंने क्रोध करके नहीं किया, इस समान लाभ मुझे अन्य कुछ भी नहीं है । जो कल्याणरूप कार्य हैं उनमें अनेक विघ्न आते ही हैं। मुझे भी विघ्न आया वह ठीक ही है। मैं तो अब साम्यभाव की शरण लेता हूँ । यदि उपद्रव आने पर मैं क्षमा छोड़कर क्रोध से विकार रूप हो जाऊँगा तो मुझे देखकर अन्य मन्दज्ञानी तथा कायर त्यागी तपस्वी धर्म से शिथिल हो जायेंगे, तब मेरा जन्म केवल दूसरों को दुःखी करने के लिये ही हुआ कहलाया। यदि मैं वीतराग धर्म धारण करके भी क्रोधी, विकारी, दुर्वचनी हो जाऊँ तो मुझे देखकर अन्य भी क्रोधी होने लग जायेंगे, तब धर्म की मर्यादा भंग करके पाप की परिपाटी चलानेवाला मैं ही प्रधान हो गया। अतः प्राण जाने पर भी, धन व अभिमान नष्ट होने पर भी मुझे क्षमागुण छोड़ना उचित नहीं है 1 - पूर्वभय में मैंने अशुभ कर्म बांधे हैं उनका फल मैं ही भोगूगां। ये अन्य जन तो निमित्त मात्र हैं। यदि इनके निमित्त से पाप कर्म उदय में नहीं आता तो किसी अन्य के निमित्त से आता। उदय में आया हुआ कर्म तो फल बिना टलता नहीं है। ये लौकिक अज्ञानी मेरे ऊपर क्रोधी होकर दुर्वचन आदि के द्वारा उपद्रव्य करते हैं, यदि मैं भी दुर्वचनारि के द्वारा इनको उत्तर दूँ, तो मैं तत्त्वज्ञानी और ये अज्ञानी, दोनों ही समान हुए, मेरा तत्त्वज्ञानीपना निरर्थक हुआ। न्यायमार्ग से देखो, तो उदय में आया मेरा पाप कर्म, उसकी निर्जरा होने पर, कौन विवेकी अपने आत्मा को क्रोधादि के वशीभूत करेगा ? हे आत्मन्! पूर्व भवों में बांधे हुए असाता कर्मों का अब उदय आया है, उसे इलाज रहित, न रुकनेवाला जानकर समभावों सहो । यदि दुःखी होकर भोगोगे तो असाता को तो भोगोगे ही, Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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