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________________ २९२] Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार किन्तु नये और बहुत असाता कर्मों का बंध भी करोगे। अतः होनेवाले दुःख को निशंक होकर समभावों से ही सहो। ये दुष्टजन तो बहुत हैं, वे अपनी सामर्थ्य के द्वारा मुझमें क्रोधरूप अग्नि को प्रज्वलित कराकर. मेरी समभावरूप सम्पत्ति को जला देना चाहते हैं। अब यहाँ यदि मैं असावधान होकर क्षमा को छोड़कर क्रोधी हो जाऊँगा तो अवश्य ही अपना साम्यभाव नष्ट करके, अपना धर्म व यश का नाश करनेवाला हो जाऊँगा। इसलिये दुष्टों का संसर्ग होने पर सावधान रहना ही उचित है। ज्ञानी मनुष्य तो असह्य दुःख उत्पन्न होने पर भी अपने पूर्व कर्म का नाश होना जानकर हर्षित ही होते हैं। यदि दुर्वचन रूपी कांटों से पीड़ित किया गया मैं क्षमा छोड़ दूंगा तो क्रोधी और मैं, दोनों ही समान हुए। बैरी यदि अनेक प्रकार के दुर्वचन, पीड़न, मारण द्वारा मेरा इलाज नहीं करता तो मैं अपने पुराने संचित अशुभ कर्मों से कैसे छूटता ? अतः बैरी ने तो मुझ पर उपकार ही किया है जो मुझे अशुभ कर्मों से छुड़ा दिया है। ____ मैंने विवेकी होकर जो जिनागम के प्रसाद से साम्यभाव का अभ्यास किया है, उसकी परीक्षा लेने को ये बैरीरूप परीक्षा का स्थान प्रगट हुआ हैं, यहाँ पर मेरे भावों की परीक्षा हो गई। परीक्षा लेने को ही ये कर्म उदय में आये हैं। यदि मैं समभाव की मर्यादा को तोड़कर बैरियों पर क्रोध करूँगा, तो मैं ज्ञाननेत्र का धारी होकर के भी समभाव को नहीं प्राप्त कर क्रोधरूप अग्नि में जलकर भस्म हो जाऊँगा। मैं वीतराग के मार्ग पर चलनेवाला, संसार की स्थिति छेदने का उद्यम करनेवाला, यदि मेरा ही चित्त क्रोधरूप हो जायेगा तो संसार के मार्ग में प्रवर्तन करनेवाले अन्य मिथ्यादृष्टियों के समान ही मैं ठहरा। यदि दुष्ट अज्ञानियों को न्यायरूप धर्म का मार्ग बताया, समझाया, क्षमा ग्रहण कराया, वे नहीं समझें. क्षमा ग्रहण नहीं करें तो ज्ञानीजन उनसे क्रोध नहीं करते। जैसे - विष दूर करनेवाला वैद्य किसी का विष दूर करने के लिये अनेक औषधि आदि देकर विष दूर करना चाहता है, किन्तु यदि रोगी का जहर दूर नहीं हो, तो वैद्य स्वयं जहर नहीं खा लेता है - कि इसका विष दूर नहीं हुआ तो मैं ही विष खाकर मर जाऊँ, ऐसा न्याय भी नहीं है। उसी प्रकार ज्ञानीजन भी पहले दुष्टों की दुष्टता की जाति पहिचानते हैं कि – यह दुष्टता छोड़ेगा या नहीं छोड़ेगा या अधिक दुष्टता धारण करेगा। ऐसा विचार कर, जिसे विपरीत परिणमता देखे उसे तो उपदेश ही नहीं देना, जो कुछ-समझने लायक योग्यतावाला दिखे उसे न्याय के वचन हितमित रूप कहना। यदि दुष्टता नहीं छोड़े तो आप क्रोधी नहीं होना। यदि यह मुझे दुर्वचनादि उपद्रव द्वारा भयभीत नहीं करता तो मैं प्रशम भाव द्वारा धर्म की शरण कैसे ग्रहण करता? जो मुझे पीड़ा देनेवाला है, उसने मुझे पाप से भयभीत कराकर धर्म से संबंध कराया है, इस प्रकार पीड़ा देनेवाले ने मेरा प्रमादीपना छुड़ापर मुझे पर बड़ा उपकार ही किया है। जगत में कितने उपकारी तो ऐसे हैं जो दूसरों को सुखी करने के लिए अपना शरीर छोड़ देते हैं, धन छोड़ देते हैं, तो दुर्वचन बन्धनादि सहने में मेरा क्या चला जायेगा ? मुझे दुर्वचन कहने से Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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