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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
२९०]
कृतघ्नी – ऐसे अनेक दुर्वचन कहे, तो ज्ञानी को ऐसा विचार करना चाहिये – मैंने इसका अपराध किया है या नहीं किया ? यदि मैंने इसका अपराध किया है, तथा राग-द्वेष-मोह के वश होकर किसी बात से इसका चित्त दुखाया है तो मैं अपराधी हूँ, मुझे गाली देना, नीच, चोर, कपटी, अधर्मी कहना न्याय है। मुझे इससे अधिक दण्ड देता तो भी ठीक था। मैंने अपराध किया है, अब मुझे गाली सुनकर क्रोध नहीं करना ही उचित है। अपराधी को नरक में भी दण्ड भोगना पड़ता है। मेरे निमित्त से इसको दुःख हुआ है। तब दुःखी होकर दुर्वचन कह रहा है, ऐसा विचार कर दुःखी न होकर क्षमा ही करता है।
यदि दुर्वचन कहनेवाला मंदकषायी हो तो आप जाकर उससे क्षमा मांगकर उसे क्षमा ग्रहण करने को कहे : हे कृपालु ! मैं अज्ञानी हूँ, मैंने प्रमाद व कषाय के वश होकर आपका चित्त दुखाया है, अतः अब मैं अपने अपराध की माफी चाहता हूँ; भविष्य में ऐसा कार्य भूलकर भी नहीं करूगाँ। एक बार किसी से भूल हो जाय तो बड़े लोग उसे माफ कर देते हैं। यदि सामनेवाला न्यायरहित तीव्र कषायी हो तो उसके पास अपराध माफ कराने नहीं जाये, कालान्तर में उसका क्रोध उपशान्त होने के पश्चात् क्षमा मांगे।
यदि आपने अपराध किया नहीं हो, किन्तु ईर्ष्याभाव से व केवल दुष्टता से आपको दुर्वचन कहता है तथा अनेक दोष लगाता है तो ज्ञानी कुछ भी संक्लेश नहीं करे, किन्तु इस प्रकार विचार करे – यदि मैंने इसका धन हरण किया हो, जमीन जगह छीनी हो, इसकी जीविका बिगाड़ी हो, चुगली खाई हो, इसके दोष कहकर मैंने अपराध किया हो तो मुझे पश्चाताप करना उचित है; यदि मैंने इसका अपराध नहीं किया है तो मुझे कुछ भी फिकर नहीं करना।
ये दुर्वचन कहता है सो नाम को कहता है तथा कुल को कहता है, किन्तु नाम मेरा स्वरूप नहीं है, जाति कुलादि मेरा स्वरूप नहीं है, मैं तो ज्ञायक हूँ। जिसको ये कहता है, वह मैं नहीं हूँ। जो मै हूँ उस तक दुर्वचन पहुँचते ही नहीं हैं। अतः मुझे क्षमा करना ही श्रेष्ठ है। यह जो दुर्वचन कहता है सो मुख इसका, अभिप्राय उसका, जिह्वा-दंत-ओष्ठ इसका, भाषारूप पुद्गल शब्द इसके भावों के निमित्त से उत्पन्न हुए, जिन्हें सुनकर यदि मैं विकार को प्राप्त होता हूँ तो यो मेरी बड़ी अज्ञानता है।
जो ईर्ष्यावान दुष्ट पुरुष मुझे गाली देता है, यदि स्वभाव से देखो तो गाली कोई वस्तु ही नहीं है। मुझे कहीं पर भी लगी हुई नहीं दिखाई देती है। अतः अवस्तु में लेने-देने का व्यवहार ज्ञानी होकर कैसे स्वीकार करे ?
__जो मुझे चोर, अन्यायी , कपटी, अधर्मी इत्यादि कहता है, तब ज्ञानी इस प्रकार विचार करता है - हे आत्मन्! तू अनेक बार चोर हुआ , अनेक जन्मों में व्यभिचारी, जुआरी, अभक्ष्यभक्षी, भील, चाण्डाल , चमार, गोला , बांडा, शूकर, गधा इत्यादि तिर्यंच तथा अधर्मी, पापी, कृतघ्नी हो-होकर आया है तथा संसार में भ्रमण करते हुए अनेक बार होगा। अब यदि कोई तुझे कूकर, शूकर, चोर, चांडाल
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