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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
उत्साह बिना तप निरर्थक है। यह जिनेन्द्र का मार्ग वात्सल्य द्वारा ही शोभा पाता है। वात्सल्य से ही शुभ ध्यान की बुद्धि होती है। वात्सल्य से ही सम्यग्ज्ञान निर्दोष होता है। वात्सल्य से ही दान देना कृतार्थ-सफल होता है। पात्र में प्रीति बिना तथा देने में प्रीति बिना दान निंदा का कारण है।
जिनवाणी में जिसे वात्सल्य होगा उसे ही प्रशंसा योग्य जिनवाणी का सच्चा अर्थ उद्योतरूप-प्रकट होगा। जिसको जिनवाणी में वात्सल्य नहीं, विनय नहीं उसे यथावत् अर्थ नहीं दिखेगा, वह तो विपरीत ही ग्रहण करेगा। इस मनुष्य जन्म का मंडन वात्सल्य ही है। वात्सल्य रहित बहुत मनोज्ञ आभरण, वस्त्र धारण करना भी पद-पद में निंद्य होता है। इस लोक का कार्य जो यश का उपार्जन, धर्म का उपार्जन, धन का उपार्जन है वह वात्सल्य से ही होता है। परलोक-स्वर्गलोक में महर्द्धक देवपना भी वात्सल्य से ही होता है। वात्सल्य बिना इस लोक का समस्त कार्य नष्ट हो जाता है, परलोक में भी देवादि गति प्राप्त नहीं होती है।
जिसे अर्हन्तदेव, निर्ग्रन्थगुरु, स्याद्वादरूप परमागम, दयारूप धर्म में वात्सल्य है, वही संसार परिभ्रमण का नाश करके निर्वाण को प्राप्त करता है। वात्सल्य ही से जिनमंदिर की वैयावृत्य, जिनसिद्धांतों का सेवन, साधर्मियों की वैयावृत्य, धर्म में अनुराग, दान देने में प्रीति होती है। जिन्होंने छह काय के जीवों पर वात्सल्य दिखाया है, वे ही तीनलोक में अतिशयरूप तीर्थंकर प्रवृत्ति का बंध करते हैं। इसलिये जो कल्याण के इच्छुक हैं वे भगवान जिनेन्द्र द्वारा उपदेशित वात्सल्य गुण की महिमा जानकर सोलहवीं वात्सल्य भावना का स्तवन-पूजन करके उसका महान अर्घ उतारण करते हैं। वे ही दर्शन की विशुद्धता पाकर, तपरूप आचरण करके, अहमिन्द्रादि देवलोक को प्राप्त होकर पश्चात् जगत के उद्धारक तीर्थंकर होकर निर्वाण को प्राप्त होते हैं। सोलहकारण धर्म की महिमा अचिन्त्य है जिससे तीनलोक में आश्चर्यकारी अनुपम वैभव के धारक तीर्थंकर होते हैं। ऐसी सोलहकारण भावना का संक्षेप-विस्ताररूप वर्णन किया ।१६।।
धर्म के दश लक्षण - धर्म का स्वरूप दश लक्षण रूप है। इन दश चिह्नों के द्वारा अंतरंग धर्म जाना जाता है। उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम सत्य, उत्तम शौच, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिंचन्य, उत्तम ब्रह्मचर्य – ये दश धर्म के लक्षण हैं। धर्म तो वस्तु का स्वभाव है, स्वभाव को ही धर्म कहते हैं। लोक में जितने पदार्थ हैं वे
ने-अपने स्वभाव को कभी नहीं छोडते हैं। यदि स्वभाव का नाश हो जाये तो वस्त का अभाव हो जाये किन्तु ऐसा नहीं होता है।
आत्मा नाम की वस्तु है, उसका स्वभाव क्षमादि रूप है। क्रोधादि कर्मजनित उपाधि है, आवरण है। क्रोध नाम की कर्म की उपाधि का अभाव होने पर क्षमा नाम का आत्मा का स्वभाव स्वयं ही प्रकट हो जाता है। इसी प्रकार मान के अभाव से मार्दव गुण, माया के अभाव से आर्जव गुण, लोभ के अभाव से शौच गुण इत्यादि जो आत्मा के गुण हैं वे कर्म के अभाव से स्वयमेव प्रकट होते हैं। जो ये उत्तम क्षमादि आत्मा के स्वभाव हैं, वे मोहनीय कर्म के भेद क्रोधादि कषायों द्वारा अनादिकाल से आच्छादित हो रहे हैं। कषायों के अभाव से क्षमादि आत्मा के स्वाभाविक गुण प्रकट हो जाते हैं।
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