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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार] [२८७ भी अपने स्त्री-पुत्रों में, विषयों में अति अनुरागी होकर उनके लिये कट जाता है, मर जाता है, अन्य को मार देता है - ऐसा मोह का कोई अदभुत माहात्म्य है। वे पुरुष धन्य हैं। जो सम्यग्ज्ञान से मोह को नष्ट करके आत्मा के गुणों में वात्सल्य करते हैं। पंचमकाल के धनिक संसारी के वात्सल्य का अभाव है : संसारी तो धन की लालसा से अति आकुलित होकर धर्म में वात्सल्य छोड़ बैठे हैं। संसारी के जब धन बढ़ता है तो तृष्णा और अधिक बढ़ जाती है, सभी धर्म का मार्ग भूल जाता है, धर्मात्माओं में वात्सल्य दूर से ही त्याग देता है। रात्रि-दिन धन-संपदा के बढ़ाने में ऐसा अनुराग बढ़ता है कि लाखों का धन हो जाये तो करोड़ों की इच्छा करता है, आरम्भ परिग्रह को बढ़ाता जाता है, पापों में प्रवीणता बढ़ाता जाता है तथा धर्म में वात्सल्य नियम से छोड़ देता है। जहाँ दानादि में, परोपकार में धन लगता दिखाई देता है वहाँ दूर से ही बचकर निकल जाता है, बहुआरम्भ, बहुपरिग्रह, अतितृष्णा से नजदीक आ गया नरक का निवास भी से उसे दिखाई नहीं देता है। पंचमकाल के धनाढ्य पुरुष तो पूर्व भव से ही मिथ्या-धर्म, कुपात्र-दान, कुदान आदि में लिप्त होकर ऐसे कर्म बांधकर आये है कि उनकी नरक-तिर्यंच गति की परिपाटी असंख्यातकाल अनंतभव तक नहीं छूटेगी। उनका, तन, मन, वचन, धन, धर्म कार्य में नहीं लगता है। रात्रि-दिन तृष्णा व आरम्भ से ही दुःखी रहते हैं; उनको धर्मात्मा में तथा धर्म के धारने में कभी वात्सल्य नहीं होता है। धन रहित यदि धर्मात्मा भी हो तो उसे भी नीचा मानते हैं। __ धर्म तथा धर्मात्माओं में वात्सल्य की प्रेरणा : हे आत्महित के वांछक हो! धन सम्पदा को महामद को उत्पन्न करनेवाली जानकर, देह को अस्थिर दुःखदायी जानकर, कुटुम्ब को महाबंधन मानकर इनसे प्रीति छोड़कर अपने आत्मा से वात्सल्य करो। धर्मात्मा में, व्रती में, स्वाध्याय में, जिनपूजन में वात्सल्य करो। जो सम्यक्चारित्ररूप आभरण से भूषित साधुजन हैं उनका जो पुरुष स्तवन करते हैं, गौरव करते हैं, उनके वात्सल्य गुण है, वे सुगति को प्राप्त होते हैं, कुगति का नाश करते हैं। वात्सल्य गुण के प्रभाव से ही समस्त द्वादशांग विद्या सिद्ध होती हैं। सिद्धान्तग्रन्थों में तथा सिद्धांत का उपदेश करनेवाले उपाध्यायों में सच्ची भक्ति के प्रभाव से श्रुतज्ञानावरण कर्म का रस सूख जाता है तब सफल विद्या सिद्ध हो जाती है, वात्सल्यगुण के धारक को देव भी नमस्कार करते हैं। वात्सल्य के द्वारा ही अठारह प्रकार की बुद्धि-ऋद्धि, नौ प्रकार की आकाशगामिनी क्रिया-ऋद्धि , अनेक प्रकार की चारण-ऋद्धि, ग्यारह प्रकार की विक्रिया-ऋद्धि, तीन प्रकार की बल-ऋद्धि, सात प्रकार की तप-ऋद्धि, छह प्रकार की रस-ऋद्धि, आठ प्रकार की औषधि-ऋद्धि, दो प्रकार की क्षेत्र-ऋद्धि इत्यादि चौंसठ ऋद्धि व अनेक शक्तियाँ प्रकट हो जाती हैं। यहाँ ऋद्धियों का स्वरूप कहने से कथन बढ़ जायेगा इसलिये नहीं लिखा है। अर्थ प्रकाशिका में लिखा है, वहाँ से जान लेना। ___ वात्सल्य के द्वारा ही मंदबुद्धियों का भी मतिज्ञान-श्रुतज्ञान विस्तीर्ण हो जाता है। वात्सल्य के प्रभाव से पाप का प्रवेश नहीं होता है। वात्सल्य से ही तप की शोभा होती है। तप में Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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