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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates २८६] [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार बड़ी महिमा आती है। देखो जैनियों का धर्म! ये जैनी प्राण जाने पर भी अभक्ष्यभक्षण नहीं करते हैं, तीव्र रोग वेदना होने पर भी रात्रि में दवाई-जलादि भी नहीं पीते हैं, धनअभिमानादि नष्ट होने पर भी असत्य वचनादि नहीं बोलते हैं, महान आपदा आने पर भी पराये धन में चित्त नहीं चलाते हैं, अपने प्राण जाने पर भी अन्य जीव का घात नहीं करते हैं। शील की दृढ़ता, परिग्रह परिमाणता, परम संतोष धारण करने से आत्मा की प्रभावना होती है तथा मार्ग की भी प्रभावना होती है। अतः समस्त धन चले जाने पर भी व प्राण चले जाने पर भी जो अपने निमित्त से धर्म की निन्दा-हास्य कभी नहीं कराता, उसके सन्मार्ग प्रभावना अंग होता है। इस प्रभावना की महिमा का करोड़ जिह्वाओं द्वारा भी वर्णन करने में कोई समर्थ नहीं है। इसलिये हे भव्यजनों! तीन लोक में पूज्य प्रभावना अंग को दृढ़ता से धारणा करके इसी की भक्ति से पूजा करो, इसी का अर्घ उतारण करो। जो प्रभावना अंग को दृढ़ता से धारण करता है, वह इन्द्रादि देवों द्वारा पूज्य तीर्थंकर होता है। इस प्रकार सन्मार्ग प्रभावना नाम की पन्द्रहवीं भावना का वर्णन किया ।१५। प्रवचन वत्सलत्व भावना अब प्रवचन वत्सलत्व नाम की सोलहवीं भावना का वर्णन करते हैं। प्रवचन अर्थात् देवगुरु-धर्म इनमें वात्सल्य अर्थात् प्रीतिभाव वह प्रवचन कहलाता है। जो चारित्रगुण सहित हैं, शील के धारी हैं, परम साम्यभाव सहित हैं, बाईस परीषहों के सहनेवाले हैं, देह में निमर्मत्व, समस्त विषय वांछा रहित, आत्महित में उद्यमी, पर का उपकार करने में सावधान - ऐसे साधुजनों के गुणों में प्रीतिरूप परिणाम वह वात्सल्य है। व्रतों के धारी, पाप से भयभीत, न्यायमार्गी, धर्म में अनुराग के धारक, मंद कषायी, संतोषी ऐसा श्रावक तथा श्राविका के गुणों में, उनकी संगति में अनुराग धारण करना वह वात्सल्य है। जो स्त्री पर्याय में व्रतों की हद्द को प्राप्त करके, समस्त गृहादि परिग्रह को छोड़कर, कुटुम्ब का ममत्व छोड़कर, देह में निमर्मता धारण करके, पाँच इंद्रियों के विषयों को छोड़कर, एक वस्त्रमात्र परिग्रह का आलम्बन लेकर, भुमि शयन, क्षुधा, तृषा, शीत, उष्णादि परीषह सहन कर, संयम सहित ध्यान-स्वाध्याय-सामायिक आदि आवश्यकों सहित होकर, अर्जिका की दीक्षा ग्रहण कर, संयम सहित काल व्यतीत करते हैं उनके गुणों में अनुराग वह वात्सल्य भाव है। ___मुनिराज के समान वन में रहते हुए, बाईस परीषह सहते हुए, उत्तमक्षमादि धर्म के धारक देह में निमर्मत्व, आपके निमित्त बनाया औषधि-अन्न-पानादि ग्रहण नहीं करनेवाले, एक वस्त्र कोपीन बिना समस्त परिग्रह के त्यागी उत्तम श्रावकों के गुणों में अनुराग वह वात्सल्य है। देव-गुरु-धर्म के सत्यार्थ स्वरूप को जानकर दृढ़ श्रद्धानी, धर्म में रूचि के धारक अव्रत-सम्यग्दृष्टि में भी वात्सल्य करना चाहिये। मोह की महिमा : इस संसार में अनादिकाल से ही अपने स्त्री-पुत्र-कुटुम्बादि में, देह में, इंद्रिय विषयों के साधनों में राग लगा चला आ रहा है। पिछला अनादि संस्कार ही ऐसा है कि तिर्यंच Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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