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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार ] [२८५ विषय ज्ञान-चरित्र को नष्ट कर देते हैं । तप के प्रभाव से काम का नाश होता है, रसना इंद्रिय की चपलता नष्ट हो जाती है, लालसा का अभाव होता है । रत्नत्रय की प्रभावना में तप से ही दृढ़ता होती है। जिन मंदिर और जिनबिम्ब की प्रतिष्ठा कराना : जिनेन्द्र के प्रतिबिम्ब की प्रतिष्ठा कराना, जिनेन्द्र का मंदिर बनवाना इनसे सन्मार्ग की प्रभावना होती है । प्रतिष्ठा कराने से जब तक जिनबिम्ब रहेगा तब तक दर्शन, स्तवन पूजनादि करके अनेक भव्य जीव पुण्य उपार्जन करेंगे, तथा जो जिनमंदिर बनावायेंगे उन गृहस्थों का ही धन प्राप्त करना सफल होगा। पूजन, रात्रि जागरण, शास्त्रों का व्याख्यान, श्रवण, पठन, जिनेन्द्र का स्तवन, सामाजिक, प्रतिक्रमण, अनशनादि तप, नृत्य-गान - भजन, उत्सव जिनमंदिर होने पर ही होते हैं। जिन मंदिर बिना धर्म का समस्त समागम होता ही नहीं है। इसलिये अधिक क्या लिखें, अपने तथा पर के उपकार का मूल प्रतिष्ठा कराना तथा जिनमंदिर बनवाना है। - धन में आसक्ति घटाने की प्रेरणा : धर्म का उत्कृष्ट मार्ग तो समस्त परिग्रह छोड़कर वीतरागता अंगीकार करना है; परन्तु जिसके प्रत्याख्यान व अप्रत्याख्यान कषायों का उपशम नहीं हुआ उससे गृह सम्पदा नहीं छोड़ी जाती है। धन सम्पदा बहुत हो तो प्रथम तो जिनका आपने अन्याय से धन लिया हो उनके पास जाकर क्षमा मांगकर उनका धन लौटा देना। यदि आपके पास धन बहुत हो तो धन के उपार्जन करने का त्याग करना । तीव्रराग के बढ़ानेवाले इंद्रियों के विषयों की लालसा छोड़कर संवररूप होना । फिर जो शेष धन रहे उसमें से अपने मित्र, हितचिन्तक, पुत्री, बहन, भुआ, बंधुओं में जो निर्धन, रोगी, दुःखी हों उनको तथा अनाथ विधवा हों उनको तथा योग्य देकर संतोषित करना । अपने आश्रित, सेवकादि व जो समीप में रहनेवाले हों उनको यथायोग्य संतुष्ट करके, फिर पुत्र को - स्त्री को उनका हिस्सा अलग दे देना । पश्चात् जो धन बचे उसे जिनमंदिर बनवाने में, जिनबिम्ब की प्रतिष्ठा कराने में तथा जिनेन्द्र के धर्म का आधार जिनसिद्धांतों को लिखवाने में ( छपवाने में ) कृपणता छोड़कर उदार मन से पर के उपकार करने की बुद्धि से धन लगाना; उसके समान कोई प्रभावना नहीं है। बाह्य आचरण में शुद्धता बढ़ाने की प्रेरणा : जो मंदिर प्रतिष्ठा तो कराये किन्तु अनीति से पराया धन रख ले, अन्याय का धन ग्रहण कर ले तो उसकी समस्त प्रभावना नष्ट हो जायेगी। प्रतिष्ठा करानेवाला, मंदिर बनवानेवाला यदि खोटा वणिज व्यवहार करता है, हिंसादि महापापों में अयोग्य निंद्य वचनों में, तीव्र लोभ में प्रवर्तता है, कुशील में प्रवर्तता है, तथा अतिकृपणता करके परिणामों में संक्लेश रूप होकर धन खर्च करता है तो उसकी समस्त प्रभावना नष्ट हो जायेगी । इसलिये जिनबिम्ब की प्रतिष्ठा करानेवाले की, जिनमंदिर बनवालेवाले की बाह्य प्रवृत्ति भी शुद्ध होती है, इससे प्रभावना होती है। मंदिर में शिखर, कलश, घण्टा-घण्टी, कपड़े का चन्दोवा, सिंहासन आदि उत्तम उपकरण देकर तथा स्वाध्याय में प्रवृत्ति आदि द्वारा होने वाली प्रभावना दुःख का नाश करनेवाली होती है। I प्रभावना शुद्ध आचरण द्वारा होती है, अतः जो जिनवचनों का श्रद्धानी होता है वही धर्म की प्रभावना करता है। जैनियों का गाढ़ा प्रेम देखकर अन्य मिथ्यादृष्टि के हृदय में भी जैनधर्म की Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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