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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates २८४] [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार जिनेन्द्रभक्ति करना : जिनेन्द्र की बड़ी भक्ति , बड़ी विनय, निश्चल ध्यान से ऐसे पूजन करो जिसे करते हुए देखकर तथा शुद्ध भक्ति के पाठ पढ़ते तथा सुनते हुए हर्ष के अंकुर प्रकट हो जायें, आनन्द हृदय में नहीं समाये, बाहर उछलने लग जाये; जिन्हें देखकर मिथ्यादृष्टियों के भी ऐसा परिणाम हो जायें - अहो! जैनियों की भक्ति आश्चर्यरूप है, जिसमें ये निर्दोष उत्तम उज्ज्वल प्रामाणिक सामग्री, ये उज्ज्वल सोने-चाँदी-कांसा-पीतल के मनोहर पूजन के बर्तन, ये भक्तिरस से भरे अर्थ सहित कानों को अमृतरस से सींचते हुए शुद्ध अक्षरों का उच्चारण, एकाग्रता से विनय सहित शब्दों के कहे अनुसार उज्ज्वल द्रव्यों को चढ़ाना, ये परमशांतमुद्रारूप वीतराग के प्रतिबिम्ब प्रातिहार्यों सहितपूजना, स्तवन करना, नमस्कार करना धन्य पुरुषों द्वारा ही होता है। धन्य इनकी भक्ति. धन्य इनका जन्म. धन्य इनका मन-वचन-काय और धन। धन्य इनका धन जो निर्वांछक होकर ऐसे सन्मार्ग में लगाते हैं। ऐसा प्रभाव व्याप्त हो जाता है जिसे देखने से - सुनने से निकट भव्यों के नेत्रों से आनन्द के आँसू झरने लग जायें। ___ भक्ति ही संसार समुद्र में डूबते हुए लोगों को हस्तावलम्बन देनेवाली है। हमारे लिये भव-भव में जिनेन्द्र की भक्ति ही शरण हो। इस प्रकार जिनेन्द्र का नित्य पूजन करना, अष्टाह्निका, षोडशकारण दशलक्षण व रत्नत्रय पर्यों में सभी पाप के आरम्भ छोड़कर जिन पूजना करना, आनन्द सहित नृत्य करना, कर्ण प्रिय वाद्य बजाना; तथा स्वर ताल, मूर्च्छनादि सहित जिनेन्द्र के गुणगान करने में सभी सन्मार्ग प्रभावना है। जिनके हृदय में सत्यार्थ धर्म निवास करता है। उनसे प्रभावना होती ही है। शास्त्र प्रवचन की प्रेरणा तथा व्याख्यान का स्वरूप : जिनेन्द्र प्ररूपित चारों अनुयोगों के सिद्धांतों का ऐसा व्याख्यान करना जिसे सुनने से एकान्त का हठ नष्ट हो जाये, हृदय में अनेकान्त रच जाये, पापों से कांपने लगे, व्यसन छट जांय. दया रूप धर्म में प्रवर्तन हो जाये, अभक्ष्यभक्षण का त्याग हो जाये। ऐसा व्याख्यान करना जिसे सुनने से हजारों मनुष्यों का कुदेव, कुगुरु, कुधर्म के आराधन का त्याग हो जाये तथा वीतरागदेव, दयारूप धर्म, आरम्भ परिग्रह रहित गुरु के आराधन में दृढ़ श्रद्धान हो जाये। ऐसा व्याख्यान क सुनकर बहुत मनुष्य रात्रि भोजन , अयोग्य भोजन, अन्याय के विषय, परधन में राग छोड़कर व्रतों में, शील में, संयम भाव में, संतोषभाव में लीन हो जायें। ऐसा उपदेश करना जिससे देहादि परद्रव्यों से भिन्न अपने आत्मा का अनुभव हो जाये, शरीर में एक एकत्वबुद्धि छूट जाये, जीव-अजीवादि द्रव्यों का प्रमाण-नय-निक्षपों के द्वारा निर्णय होकर संशय रहित द्रव्य , गुण, पर्यायों का सत्यार्थ स्वरूप प्रकट हो जाये, मिथ्या अंधकार दूर हो जाये - ऐसे आगम के व्याख्यान से सन्मार्ग की प्रभावना होती है। ऐसा घोर तपश्चरण करना जो कायरों से धारण नहीं किया जा सके, ऐसे तप द्वारा प्रभावना होती है। विषयानुराग छोड़कर निर्वांछक होने से भी आत्मा का प्रभाव प्रकट होता है, तथा धर्म का मार्ग भी तप से ही चमकता है। यह तप दुर्गति के मार्ग को नष्ट करनेवाला है। तप बिना कामादि Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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